‘‘ क्षत्रिय इतिहास के कुछ धुंधले पृष्ठ ‘‘
वैववस्तु मनु से प्रारम्भ हुई, श्रीराम व श्रीकृश्ण आदि जिसके मध्य में है,ं सहस्त्राब्दियों पूर्व से भारत की पावन भूमि पर आज तक चली आ रही, क्षत्रिय वंषों की अटूट परम्परा को प्रणाम करते हुए, एक राजन्य (राजपुत्र) ही जन्मप्रदत्त स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सदैव सीमाओं का संरक्षण करता आया है। हिन्दुकुष रोहित-गिरि पंचनद तक भरत खण्ड की परिष्चमोत्तरीय सीमा के क्षत्रिय प्रहरियों का दीर्घ कालीन विकट संघर्ष ही भारत की संस्कृति व सभ्यता की रक्षा करता रहा है। आक्रमणकारियों के लिए रोहितगिरि का उत्तारापथ ही पूर्व काल से एक प्रवेष द्वारा था। सूर्य, चन्द्र और नागादि संज्ञक क्षत्रिय वंषों की षाखाओं प्रषाखाओं में बंटे महाजनपद गणराज्यों के षासक ही प्राचीन आर्य सभ्यता को मध्य एषिया तक प्रसारित करने में संघर्षरत थे। यह प्रसार क्रम कई द्वीपों तथा मध्य एषिया तक होता चला गया, जहाँ से उनका आना जाना बसना उजडना लगा रहता था। वर्तमान भारत में बिखरे पड़े हजारों षाखाओं व प्रषाखाओं में विभाजित करोड़ो संताने है जो सूर्य व चन्द्र वंष की दो समानान्तर विकसित सभ्यताओं के रूप में समूचे आर्यवर्त, हिमवर्ष व मध्यएषिया, अरब ईरान, मिश्र आदि तक फैल गये थे तथा अपने व अपने पूर्वजों, धर्मगुरूओं ओर वंष पुरोहितों, ऋषियों आदि के नाम पर अपने गणराज्य व ठिकाने स्थापित कर रहे थें। रोहिला षब्द भी इसी क्रम की एक अटूट कड़ी है। प्रयाग के पास झूँसी में विकसित प्राचीन चन्द्रवंषी चक्रवर्ती सम्राट पुरूरवा व उसके वंषधरो में प्रख्यात सम्राट ययाति के पांच पुत्र पंचजन कहलाये और उनके पाँच जनपद स्थापित हुए। लगभग सात सहस्त्राब्दी पूर्व मध्य देष आर्यवर्त में विष्व की प्राचीनतम् सभ्यता विकसित हो रही थी, इलाहाबाद, (प्रयाग) के पास झूँसी में चन्द्रवंषी क्षत्रियों व कौषल (अयोध्या) में सूर्य वंषी इक्ष्वाकु के वंषधरो के खण्ड स्थापित हो रहे थे। उस काल की परम्परा के अनुसार जिस सम्राट के रथ का चक्र अनेक राज्यों में निषंक घूमता हो वह चक्रवर्ती सम्राटों की श्रेणी में मान्य होता था। वन गमन से पूर्व (वानप्रस्थ आश्रम) सम्राट ययाति ने अपने पाँच पुत्रों क्रमषः यदु, तुर्वसु, द्रहृाू (उपनाम रोहू) पुरू और अनु के लिए अपने साम्राज्य को पांच भागों में विभक्त कर प्रत्येक पुत्र को अपने-अपने प्रदेषों के षासनाधिकार का उत्तरदायित्व सौंप दिया था।
1. यदु- दक्षिण पष्चिम में केन-बेतुआ और चम्बल नदी के कांठो का प्रदेष दिया, कालान्तर में यदु के वंषधर यादव कहलाये।
2. तुर्वसु-कुरूष प्रदेष वर्तमान बघेल खण्ड तुर्वसु को प्राप्त हुआ, वहां कुरूषजनों को परास्त कर तुर्वसु वंष की स्थापना हुई।
3. द्रह्यु- चम्बल नदी के उत्तर पष्चिम, सिन्धु नदी के किनारे तथा यमुना नदी के पष्चिम पचनद (पंजाब) का पूरा प्रान्त द्रह्यु को मिला। द्रुह्यु के वष्ंाधर आगे चल कर उत्तर और पूरब में हिन्दु कुष तथा पामीर ओर पष्चिमोत्तर में वाल्हिक, हरअवती तक के विस्तुत क्षेत्रों पर अपना अधिकार स्थापित करते चले गए और वैदिक संस्कृति का प्रसार किया।
4. पुरू- पुरू को प्रतिष्ठान के राज्य सिंहासन पर आसीन किया गया, पुरू के वंष आगे चलकर पौरव कहलाए इसी वंष में भरत का जन्म हुआ, आर्यवर्त, हिमवर्ष, जम्बूद्वीप (मध्यप्रदेष-विन्घ्याचल से हिन्दुकुष रोहित गिरी तक) का नाम भरत खण्ड भारत वर्ष कहलाया।
5. अनु- यमुना नदी को पूरब और गंगा यमुना के मध्य का देष (दक्षिण पंचाल) तथा अयोध्या के पष्चिम के क्षेत्र अनु को प्राप्त हुए अनु के वंष घर आनव कहलाए।
इस प्रकार चन्द वंष का विस्तार हुआ।
आर्यवर्त की उत्तरी सीमा पर स्थित केकय देष भरत को उसकी माता कैकेयी के राज्य के कारण प्राप्त हुआ। भरत के दो पुत्रों तक्ष व पुष्कर ने क्रमषः तक्षषिला व पुष्करावती दो राजधानियां स्थापित की और आर्य संस्कृति को समृद्ध किया। उस काल में संस्कृत ही मातृभाशा थी।
भारत की पष्चिमोत्तरीय सीमाओं पर जिस अवसर पर भी विदेषी आक्रमण हुए सूर्यवंषी भरत और चन्द्रवंषी द्रह्यु के वंषधरों ने मिल कर प्रहरियों के अनुरूप अपना रक्त बहाया। ईसा से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व से इस पर्वतीय प्रदेष में पचनद तक ‘कठ‘ गणराज्य, छुद्रक गणराज्य, यौधेय गणराज्य, मालव गणराज्य, अष्वक गणराज्य आदि फल फूल रहे थे। इनकी षासन प्रणाली गणतंत्रात्मक थी। यहाँ के निवासी सौंदर्यापासक थे और सुन्दर पुरूश ही राजा चुना जाता था। दु्रह्यु देष का नाम कालान्तर में द्रुह्यु के वंषराज गंधारसैन के नाम पर गांधार और सूर्यवंषी राजाओं ने अपने षासित प्रदेष को ‘कपिष‘ के नाम से प्रसिद्ध कर काबुल (कुम्भा) नदी के पूर्वोत्तरीय क्षेत्र में अपनी राजधानी का नाम कपिषा रखा।
प्राचीन काल में कपिष (लडाकू, उदण्ड पर्वताश्रयी) और गान्धार की भाशा संस्कृत थी, किन्तु मध्यकाल से संस्कृत भाशा का विकृत सरलीकृत रूप ‘ प्राकृत‘ में परिवर्तित हो गया। भाषा के आधार पर यह स्पष्ट है कि इस प्रदेष में सहस्त्रों वर्ष तक भारतीय संस्कृति और सभ्यता स्थापित रही और इस समस्त प्रदेष में दीर्घ काल तक आर्य क्षत्रिय नरेषों का षासन रहा।
अनेक पहाड़ियों (माल्यवत्त-रोहितगिरि-लोहितगिरि-हिन्दकाकेश्षस-रोहतांग आदि) नदियों (कुनार, स्वातु, गोमल, कुर्रम, सिन्धु की सहायक नदियाँ- सतलज, रावी, व्यास तथा घाटियों के कारण सामरिक दृष्टि से भी यह प्रदेष इन पर्वताश्रयी क्षत्रिय नरेषों के लिए महत्वपूर्ण था। यहाँ ठण्डी ऋतु जलवायु की दृष्टि से अति उत्तम रही। इसलिए यहां के निवासी बलिष्ठ, रक्तिम वर्ण (ललिमा चुक्त गोरा रंग) व कद काटी में मजबूब, हठी व गठीले होते रहे है। दुर्गम पहाड़ियों, नदियों व घाटियों के कारण यहां के निवासी पर्वताश्रयी, अष्वारोही थे। अष्वों के लिए प्रसिद्ध रहा यह प्रदेष रोहित गिरिये, रोहित नस्ल के अष्वों के व्यापार का प्रमुख केन्द्र था। क्रमषः इसी कारण यह प्रदेष घोड़ों का प्रदेष अथवा अष्वकों का प्रदेष (अष्वकायन) कहलाता था। रोहित (संस्कृत), वर्तमान भाषा में लाल- भूरा रंग के घोड़े और श्येन नस्ल के घोड़े पाए जाते थे। घोडों अथवा अष्वारोहण के बिना यहां जीवन सम्भव नहीं था। विदेषी आक्रमणों के समय अष्वों की प्रथम भूमिका थी। गहरे किसमिसी रंग के बहादुर घोड़ों को रोहित नाम से सम्बोधित किया जाता था। ईरानी व यूनानी विद्वानों के द्वारा भी इस प्रदेष के रोहित नस्ल के घोड़ों की प्रषन्सा की गई है। इस प्रदेष के (महाजनपद) प्राचीन षासक (चन्द्रवंषी) द्रुह्यु का उपनाम भी रोहु था। इसलिए इसका नाम द्रुहयू का देष, रोह देष, रोहित गिरि रोह प्रदेष (अपभं्रष होता चला गया), हो जाना व्यावहारिक व स्वाभाविक था। संस्कृत भाषा में रोह का अर्थ है- सीधे दृढ़-बल युक्त चढ़ना-अवरोहण करना, रक्तिम वर्ण (रोहित), पर्वत (माउण्टेन) इसलिए मध्यकाल तक ये पर्वताश्रयी क्षत्रिय षासक रोहित वर्ग से प्रसिद्ध हुए। पर्वतीय प्रदेष का नाम , रोहित प्रदेष (प्रांकृत संस्कृत में) यहां सेनाओं की युद्ध प्रणाली रोहिल्ला युद्ध (रोहिला वार, लैटिन भाषा में) प्रणाली सीधे दृढ़ बल युक्त पर्वत पर अवरोहण की तरह तीब्रता से षत्रु पर चढ़ जाना, षत्रु सेना पर बाढ़ रोह की तरह, लाल होकर (रक्ति वर्ण क्रोधित आक्रोष युक्त) टूट पड़ना, तीब्रता से षत्रु सेना में घुस जाना। रोह (कमानी) के समान षत्रु सेना को भेदते, (काटते जाना) हुए चढ़ाई करना, प्रख्यात हुई ओर अनेक क्षत्रिय सेनानायकों को , रोहिल्ला उपधि से विभूषित किया गया। (मध्यकाल में)
‘‘धृतकौषिक मौद्गल्यौ आलम्यान परषरः।
सौपायनस्तथत्रिश्च वासुकी रोहित स्तथा।‘‘
(राष्ट्रधर्म-भाद्रपद 2067, सितम्बर 2010 के पृष्ठ 31 पर रोहित गोत्र का उपरोक्त ष्लोक में वर्णन)
‘‘अरूषा रोहिता रथे बात जुता
वृषभस्यवते स्वतः‘‘ ।।10।।
(ऋग्वेद मण्डल 1, अ0 15 स्0 94 ‘‘ रोहिला क्षत्रियों का क्रमबद्ध इतिहासः पृष्ठ 42)
मद्रान, रोहित कश्चैव, आगेयान, मालवान अपि गणन सर्वान, विनिजीत्य, प्रहसन्निव,। महाभारत वन पर्व 255-20 प्राचीन रोहित गिरि के नाम का अस्तित्व आज भी रोहतांग घाटी, रोहतांग दर्रानाम से अवस्थित है।
महाभारत के सभा पर्व में लोहित (रोहित) (संस्कृत शब्द) प्रदेश के दस मण्डलों का उल्लेख है जो भारत का उत्तर पूर्वी मध्यभाग था। श्री वासूदेव शरण अग्रवाल
‘‘ पाणिनि कालीन भारत वर्ष पृष्ठ 449 ‘‘ अश्येनस्य जवसा‘‘ वैदिक साहितय ऋग्वेद 1, अ0 17, मत्र 11, सुक्त 118-119 अर्थात- दृढ निश्चय के साथ (अश्येनस्य ) बाज पखेरू के समान (जवसा) तीव्र वेग के समान हम लोगो को आन मिली। (यह श्येन और रोहित नस्ल के घोडों की अश्व के रोहिला सेनाओं का वर्णन है।)
‘‘ उत्तरीय सीमा प्रान्त मे ंएक सुरम्य स्थानथा यहाँ का राजा क्षत्रिय था वह अपनी प्रजा को बहुत प्यार करता था, यहाँ विभिन्न प्रकार के अन्न व फलों के वृक्ष थे। यहां के निवासी भयानक थे तथा उनकी भाषा रूक्ष संस्कृत थी। ये रजत तथा ताम्र मुद्राओं का प्रयोग करते थे। ये बहुत लडाकू तथा बहादूर थे यह क्षेत्र कुम्भा नदी के उत्तर पूर्व में 155 मील दूर था। ‘‘ एक प्रसिद्ध इतिहासकार टालेमी के अनुसार यह वर्णन चीन पागी युलान-च्वाड्डा ने किया। प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल पृष्ठ 153-154 द्वारा श्री विमलचन्द्र लाहा (रोहिला क्षत्रिय क्रमबद्ध इतिहास से साभार‘‘) पाणिनी ने भी पश्चिमोत्तरीय सीमा प्रान्त के अश्वकायनों, अश्वकों, कठों, यादवों, छुद्रकों, मालवों निवासी सभी क्षत्रिय वर्गो को पर्वतीय और युद्धोपजीवि कहा है।
पर्वतीय (संस्कृत-हिन्दी), माउण्टेनीयर (लैटिन-अंगे्रजी), रोहित, रोहिते, रोहिले (संस्कृत ‘प्राकृत‘ - पश्तों) रोहिले-चढ़ने वाले, चढाई करने वाले अवरोही, अश्वारोही, द्रोही रोह रोहि पक्थजन , आदि समानार्थी शब्दों का सम्बन्ध प्राचीन क्षत्रिय वर्गोक्षत्रिय शासित क्षेत्रों ,पर्वतीय प्रदेशों (रोहितगिरि, रोहताग दर्रा, लोहित गिरि, कोकचा, पर्वत श्रेणी आदि)युद्ध प्रणालियों और नदी घाटी, काॅठो घोड़ों की पीठ पर (चढ़कर करने बहादुरी के साथ लडने वाले गुणों स्वभावों व क्षात्र धार्मो से है। भारतीय इतिहास में रोहिला- क्षत्रिय एक गौरवशाली वंश परम्परा है जिसमें कई प्राचीन क्षत्रिय वंशों के वंशज पाए जाते है। क्येांकि यह शब्द, क्षेत्रीयता (रोहिल देश, रोहित प्रदेश रोहित गिरि आदि द्रोह देश- रोह देश) गुणधर्म (रोहित-रक्तिम वर्ण) (कसमिसि लाल रंग) युद्ध प्रणाली (रोहिल्ला-युद्ध) (पूर्व वर्णित प्रणाली) उपाधि, बहादूीर, शौर्यपदक और क्षत्रिय सम्मान से जुडा है, इसलिए जो भी क्षत्रिय राजपुत्र इन सभी से सम्बन्धित रहा- रोहिला-क्षत्रिय अथवा रोहिल्ला राजपुत्र कहलाया गया। रोहिला-पठान इस्लामीकरण के पश्चात् की पक्भजनों , (क्षत्रिय) की आधुनिक वंश परम्परा है। जबकि क्रमशः रोहिला-क्षत्रिय पुरातन काल से भारतवर्ष में एक प्रहरी के रूप में विद्यमान रहे है। सहारनपुर के प्रख्यात साहित्यकार श्री कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने अपने पावन ग्रन्थ ‘‘ भगवान परशुराम‘‘ में भी रोहिल देश की चर्चा की है।
प्रतिष्ठित ज्योतिषी एवं ग्रन्थकार डा. सुरेश चन्द्र मिश्र ने हिन्दुस्तान दैनिक‘‘ के रविवार 20 नवम्बर 2009 के मेरठ संस्करण के पृष्ठ-2 पर ‘‘ मूल गोत्र तालिका (40गोत्र) के क्रमांक छः पर क्षत्रिय गो़त्र रोहित का वर्णन किया है। वैदिक काल में पांच की वर्ग या समुदाय आर्य क्षत्रियों के थे जो मिलकर पंचजना-पंचजन कहे जाते थे। इनके सम्मिलित निर्णय को सभी लोग विवाद की दशा में मान लेते थे। इसी शब्द की परम्परा से आज पंचायत शब्द प्रचलित है। ये पांच वशं पुरूष या गोत्रकर्ता थे।
यादव कुल पुरूष यदु, पौरव वंश पुरूष पुरू, द्रहयु वंश पुरूष द्रुहयु, तुर्वषु और आनववंश पुरूष अनु, से शेष अन्य समुदाय निकले थे।
क्षत्रिय वंश तालिका -14 (गंधार) वं. ता.-5
इन्ही पांच वंशों के पुरूषों से महापंचायत बनती थी। प्रारम्भ में इन्हीं पंचजनों से लगभग 400 क्षत्रिय गोत्रों का प्रसार हुआ।
भारत की पष्चिमोत्तरीय सीमा पर विदेषी आक्रमण कारियों के आक्रमणों को विफल करने के लिए वहां के निवासी क्षत्रिय वर्गो एवं शासकों ने आरम्भ से ही प्रत्येक अवसर पर आक्रान्ताओं के विरूद्ध घोर संघर्ष किया किन्तु मैदानी षासकों की दुर्बल सीमान्त निति के कारण उन्हें किसी भी प्रकार की सहायता उपलब्ध हो सकी। इसलिए सीमान्त प्रदेष के वीर प्रहरी वर्ग इन प्रबल सुगठित आकान्ताअें की अपार शक्ति के सम्मूख लगभग पाँच सौ वर्षो से अधिक संघर्ष न कर सके और सिकन्दर के आक्रमण ईसा पूर्व लगभग 326 के पष्चात् से नदियाँ घाटियाँ, पर्वताश्रय पार करने लगे और मैदानी स्थानों की तरफ पूर्व व पूर्वोत्तर की तरफ आने लगे। (अध्याय-9) क्षत्रिय कुल ‘ काठी क्रम सं. 5
पष्चिमोत्तरीय-सीमा प्रान्त पंजाब की जातियों व समुदायों का विवरण जो कि - स्व. सर डैंजिल लिबैट्रषन द्वारा पंजाब की जनगणना सन् 1883 और सर एडवर्ड मैकलेजन द्वारा पंजाब की जनगणना 1892 पर आधारित, सर .एच.ए. रोज द्वारा संकलित कोष है। इसमें रोहिला परिवारों (राजपूत-क्लेन) का पर्याप्त विवरण है।
वैववस्तु मनु से प्रारम्भ हुई, श्रीराम व श्रीकृश्ण आदि जिसके मध्य में है,ं सहस्त्राब्दियों पूर्व से भारत की पावन भूमि पर आज तक चली आ रही, क्षत्रिय वंषों की अटूट परम्परा को प्रणाम करते हुए, एक राजन्य (राजपुत्र) ही जन्मप्रदत्त स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सदैव सीमाओं का संरक्षण करता आया है। हिन्दुकुष रोहित-गिरि पंचनद तक भरत खण्ड की परिष्चमोत्तरीय सीमा के क्षत्रिय प्रहरियों का दीर्घ कालीन विकट संघर्ष ही भारत की संस्कृति व सभ्यता की रक्षा करता रहा है। आक्रमणकारियों के लिए रोहितगिरि का उत्तारापथ ही पूर्व काल से एक प्रवेष द्वारा था। सूर्य, चन्द्र और नागादि संज्ञक क्षत्रिय वंषों की षाखाओं प्रषाखाओं में बंटे महाजनपद गणराज्यों के षासक ही प्राचीन आर्य सभ्यता को मध्य एषिया तक प्रसारित करने में संघर्षरत थे। यह प्रसार क्रम कई द्वीपों तथा मध्य एषिया तक होता चला गया, जहाँ से उनका आना जाना बसना उजडना लगा रहता था। वर्तमान भारत में बिखरे पड़े हजारों षाखाओं व प्रषाखाओं में विभाजित करोड़ो संताने है जो सूर्य व चन्द्र वंष की दो समानान्तर विकसित सभ्यताओं के रूप में समूचे आर्यवर्त, हिमवर्ष व मध्यएषिया, अरब ईरान, मिश्र आदि तक फैल गये थे तथा अपने व अपने पूर्वजों, धर्मगुरूओं ओर वंष पुरोहितों, ऋषियों आदि के नाम पर अपने गणराज्य व ठिकाने स्थापित कर रहे थें। रोहिला षब्द भी इसी क्रम की एक अटूट कड़ी है। प्रयाग के पास झूँसी में विकसित प्राचीन चन्द्रवंषी चक्रवर्ती सम्राट पुरूरवा व उसके वंषधरो में प्रख्यात सम्राट ययाति के पांच पुत्र पंचजन कहलाये और उनके पाँच जनपद स्थापित हुए। लगभग सात सहस्त्राब्दी पूर्व मध्य देष आर्यवर्त में विष्व की प्राचीनतम् सभ्यता विकसित हो रही थी, इलाहाबाद, (प्रयाग) के पास झूँसी में चन्द्रवंषी क्षत्रियों व कौषल (अयोध्या) में सूर्य वंषी इक्ष्वाकु के वंषधरो के खण्ड स्थापित हो रहे थे। उस काल की परम्परा के अनुसार जिस सम्राट के रथ का चक्र अनेक राज्यों में निषंक घूमता हो वह चक्रवर्ती सम्राटों की श्रेणी में मान्य होता था। वन गमन से पूर्व (वानप्रस्थ आश्रम) सम्राट ययाति ने अपने पाँच पुत्रों क्रमषः यदु, तुर्वसु, द्रहृाू (उपनाम रोहू) पुरू और अनु के लिए अपने साम्राज्य को पांच भागों में विभक्त कर प्रत्येक पुत्र को अपने-अपने प्रदेषों के षासनाधिकार का उत्तरदायित्व सौंप दिया था।
1. यदु- दक्षिण पष्चिम में केन-बेतुआ और चम्बल नदी के कांठो का प्रदेष दिया, कालान्तर में यदु के वंषधर यादव कहलाये।
2. तुर्वसु-कुरूष प्रदेष वर्तमान बघेल खण्ड तुर्वसु को प्राप्त हुआ, वहां कुरूषजनों को परास्त कर तुर्वसु वंष की स्थापना हुई।
3. द्रह्यु- चम्बल नदी के उत्तर पष्चिम, सिन्धु नदी के किनारे तथा यमुना नदी के पष्चिम पचनद (पंजाब) का पूरा प्रान्त द्रह्यु को मिला। द्रुह्यु के वष्ंाधर आगे चल कर उत्तर और पूरब में हिन्दु कुष तथा पामीर ओर पष्चिमोत्तर में वाल्हिक, हरअवती तक के विस्तुत क्षेत्रों पर अपना अधिकार स्थापित करते चले गए और वैदिक संस्कृति का प्रसार किया।
4. पुरू- पुरू को प्रतिष्ठान के राज्य सिंहासन पर आसीन किया गया, पुरू के वंष आगे चलकर पौरव कहलाए इसी वंष में भरत का जन्म हुआ, आर्यवर्त, हिमवर्ष, जम्बूद्वीप (मध्यप्रदेष-विन्घ्याचल से हिन्दुकुष रोहित गिरी तक) का नाम भरत खण्ड भारत वर्ष कहलाया।
5. अनु- यमुना नदी को पूरब और गंगा यमुना के मध्य का देष (दक्षिण पंचाल) तथा अयोध्या के पष्चिम के क्षेत्र अनु को प्राप्त हुए अनु के वंष घर आनव कहलाए।
इस प्रकार चन्द वंष का विस्तार हुआ।
आर्यवर्त की उत्तरी सीमा पर स्थित केकय देष भरत को उसकी माता कैकेयी के राज्य के कारण प्राप्त हुआ। भरत के दो पुत्रों तक्ष व पुष्कर ने क्रमषः तक्षषिला व पुष्करावती दो राजधानियां स्थापित की और आर्य संस्कृति को समृद्ध किया। उस काल में संस्कृत ही मातृभाशा थी।
भारत की पष्चिमोत्तरीय सीमाओं पर जिस अवसर पर भी विदेषी आक्रमण हुए सूर्यवंषी भरत और चन्द्रवंषी द्रह्यु के वंषधरों ने मिल कर प्रहरियों के अनुरूप अपना रक्त बहाया। ईसा से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व से इस पर्वतीय प्रदेष में पचनद तक ‘कठ‘ गणराज्य, छुद्रक गणराज्य, यौधेय गणराज्य, मालव गणराज्य, अष्वक गणराज्य आदि फल फूल रहे थे। इनकी षासन प्रणाली गणतंत्रात्मक थी। यहाँ के निवासी सौंदर्यापासक थे और सुन्दर पुरूश ही राजा चुना जाता था। दु्रह्यु देष का नाम कालान्तर में द्रुह्यु के वंषराज गंधारसैन के नाम पर गांधार और सूर्यवंषी राजाओं ने अपने षासित प्रदेष को ‘कपिष‘ के नाम से प्रसिद्ध कर काबुल (कुम्भा) नदी के पूर्वोत्तरीय क्षेत्र में अपनी राजधानी का नाम कपिषा रखा।
प्राचीन काल में कपिष (लडाकू, उदण्ड पर्वताश्रयी) और गान्धार की भाशा संस्कृत थी, किन्तु मध्यकाल से संस्कृत भाशा का विकृत सरलीकृत रूप ‘ प्राकृत‘ में परिवर्तित हो गया। भाषा के आधार पर यह स्पष्ट है कि इस प्रदेष में सहस्त्रों वर्ष तक भारतीय संस्कृति और सभ्यता स्थापित रही और इस समस्त प्रदेष में दीर्घ काल तक आर्य क्षत्रिय नरेषों का षासन रहा।
अनेक पहाड़ियों (माल्यवत्त-रोहितगिरि-लोहितगिरि-हिन्दकाकेश्षस-रोहतांग आदि) नदियों (कुनार, स्वातु, गोमल, कुर्रम, सिन्धु की सहायक नदियाँ- सतलज, रावी, व्यास तथा घाटियों के कारण सामरिक दृष्टि से भी यह प्रदेष इन पर्वताश्रयी क्षत्रिय नरेषों के लिए महत्वपूर्ण था। यहाँ ठण्डी ऋतु जलवायु की दृष्टि से अति उत्तम रही। इसलिए यहां के निवासी बलिष्ठ, रक्तिम वर्ण (ललिमा चुक्त गोरा रंग) व कद काटी में मजबूब, हठी व गठीले होते रहे है। दुर्गम पहाड़ियों, नदियों व घाटियों के कारण यहां के निवासी पर्वताश्रयी, अष्वारोही थे। अष्वों के लिए प्रसिद्ध रहा यह प्रदेष रोहित गिरिये, रोहित नस्ल के अष्वों के व्यापार का प्रमुख केन्द्र था। क्रमषः इसी कारण यह प्रदेष घोड़ों का प्रदेष अथवा अष्वकों का प्रदेष (अष्वकायन) कहलाता था। रोहित (संस्कृत), वर्तमान भाषा में लाल- भूरा रंग के घोड़े और श्येन नस्ल के घोड़े पाए जाते थे। घोडों अथवा अष्वारोहण के बिना यहां जीवन सम्भव नहीं था। विदेषी आक्रमणों के समय अष्वों की प्रथम भूमिका थी। गहरे किसमिसी रंग के बहादुर घोड़ों को रोहित नाम से सम्बोधित किया जाता था। ईरानी व यूनानी विद्वानों के द्वारा भी इस प्रदेष के रोहित नस्ल के घोड़ों की प्रषन्सा की गई है। इस प्रदेष के (महाजनपद) प्राचीन षासक (चन्द्रवंषी) द्रुह्यु का उपनाम भी रोहु था। इसलिए इसका नाम द्रुहयू का देष, रोह देष, रोहित गिरि रोह प्रदेष (अपभं्रष होता चला गया), हो जाना व्यावहारिक व स्वाभाविक था। संस्कृत भाषा में रोह का अर्थ है- सीधे दृढ़-बल युक्त चढ़ना-अवरोहण करना, रक्तिम वर्ण (रोहित), पर्वत (माउण्टेन) इसलिए मध्यकाल तक ये पर्वताश्रयी क्षत्रिय षासक रोहित वर्ग से प्रसिद्ध हुए। पर्वतीय प्रदेष का नाम , रोहित प्रदेष (प्रांकृत संस्कृत में) यहां सेनाओं की युद्ध प्रणाली रोहिल्ला युद्ध (रोहिला वार, लैटिन भाषा में) प्रणाली सीधे दृढ़ बल युक्त पर्वत पर अवरोहण की तरह तीब्रता से षत्रु पर चढ़ जाना, षत्रु सेना पर बाढ़ रोह की तरह, लाल होकर (रक्ति वर्ण क्रोधित आक्रोष युक्त) टूट पड़ना, तीब्रता से षत्रु सेना में घुस जाना। रोह (कमानी) के समान षत्रु सेना को भेदते, (काटते जाना) हुए चढ़ाई करना, प्रख्यात हुई ओर अनेक क्षत्रिय सेनानायकों को , रोहिल्ला उपधि से विभूषित किया गया। (मध्यकाल में)
‘‘धृतकौषिक मौद्गल्यौ आलम्यान परषरः।
सौपायनस्तथत्रिश्च वासुकी रोहित स्तथा।‘‘
(राष्ट्रधर्म-भाद्रपद 2067, सितम्बर 2010 के पृष्ठ 31 पर रोहित गोत्र का उपरोक्त ष्लोक में वर्णन)
‘‘अरूषा रोहिता रथे बात जुता
वृषभस्यवते स्वतः‘‘ ।।10।।
(ऋग्वेद मण्डल 1, अ0 15 स्0 94 ‘‘ रोहिला क्षत्रियों का क्रमबद्ध इतिहासः पृष्ठ 42)
मद्रान, रोहित कश्चैव, आगेयान, मालवान अपि गणन सर्वान, विनिजीत्य, प्रहसन्निव,। महाभारत वन पर्व 255-20 प्राचीन रोहित गिरि के नाम का अस्तित्व आज भी रोहतांग घाटी, रोहतांग दर्रानाम से अवस्थित है।
महाभारत के सभा पर्व में लोहित (रोहित) (संस्कृत शब्द) प्रदेश के दस मण्डलों का उल्लेख है जो भारत का उत्तर पूर्वी मध्यभाग था। श्री वासूदेव शरण अग्रवाल
‘‘ पाणिनि कालीन भारत वर्ष पृष्ठ 449 ‘‘ अश्येनस्य जवसा‘‘ वैदिक साहितय ऋग्वेद 1, अ0 17, मत्र 11, सुक्त 118-119 अर्थात- दृढ निश्चय के साथ (अश्येनस्य ) बाज पखेरू के समान (जवसा) तीव्र वेग के समान हम लोगो को आन मिली। (यह श्येन और रोहित नस्ल के घोडों की अश्व के रोहिला सेनाओं का वर्णन है।)
‘‘ उत्तरीय सीमा प्रान्त मे ंएक सुरम्य स्थानथा यहाँ का राजा क्षत्रिय था वह अपनी प्रजा को बहुत प्यार करता था, यहाँ विभिन्न प्रकार के अन्न व फलों के वृक्ष थे। यहां के निवासी भयानक थे तथा उनकी भाषा रूक्ष संस्कृत थी। ये रजत तथा ताम्र मुद्राओं का प्रयोग करते थे। ये बहुत लडाकू तथा बहादूर थे यह क्षेत्र कुम्भा नदी के उत्तर पूर्व में 155 मील दूर था। ‘‘ एक प्रसिद्ध इतिहासकार टालेमी के अनुसार यह वर्णन चीन पागी युलान-च्वाड्डा ने किया। प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल पृष्ठ 153-154 द्वारा श्री विमलचन्द्र लाहा (रोहिला क्षत्रिय क्रमबद्ध इतिहास से साभार‘‘) पाणिनी ने भी पश्चिमोत्तरीय सीमा प्रान्त के अश्वकायनों, अश्वकों, कठों, यादवों, छुद्रकों, मालवों निवासी सभी क्षत्रिय वर्गो को पर्वतीय और युद्धोपजीवि कहा है।
पर्वतीय (संस्कृत-हिन्दी), माउण्टेनीयर (लैटिन-अंगे्रजी), रोहित, रोहिते, रोहिले (संस्कृत ‘प्राकृत‘ - पश्तों) रोहिले-चढ़ने वाले, चढाई करने वाले अवरोही, अश्वारोही, द्रोही रोह रोहि पक्थजन , आदि समानार्थी शब्दों का सम्बन्ध प्राचीन क्षत्रिय वर्गोक्षत्रिय शासित क्षेत्रों ,पर्वतीय प्रदेशों (रोहितगिरि, रोहताग दर्रा, लोहित गिरि, कोकचा, पर्वत श्रेणी आदि)युद्ध प्रणालियों और नदी घाटी, काॅठो घोड़ों की पीठ पर (चढ़कर करने बहादुरी के साथ लडने वाले गुणों स्वभावों व क्षात्र धार्मो से है। भारतीय इतिहास में रोहिला- क्षत्रिय एक गौरवशाली वंश परम्परा है जिसमें कई प्राचीन क्षत्रिय वंशों के वंशज पाए जाते है। क्येांकि यह शब्द, क्षेत्रीयता (रोहिल देश, रोहित प्रदेश रोहित गिरि आदि द्रोह देश- रोह देश) गुणधर्म (रोहित-रक्तिम वर्ण) (कसमिसि लाल रंग) युद्ध प्रणाली (रोहिल्ला-युद्ध) (पूर्व वर्णित प्रणाली) उपाधि, बहादूीर, शौर्यपदक और क्षत्रिय सम्मान से जुडा है, इसलिए जो भी क्षत्रिय राजपुत्र इन सभी से सम्बन्धित रहा- रोहिला-क्षत्रिय अथवा रोहिल्ला राजपुत्र कहलाया गया। रोहिला-पठान इस्लामीकरण के पश्चात् की पक्भजनों , (क्षत्रिय) की आधुनिक वंश परम्परा है। जबकि क्रमशः रोहिला-क्षत्रिय पुरातन काल से भारतवर्ष में एक प्रहरी के रूप में विद्यमान रहे है। सहारनपुर के प्रख्यात साहित्यकार श्री कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने अपने पावन ग्रन्थ ‘‘ भगवान परशुराम‘‘ में भी रोहिल देश की चर्चा की है।
प्रतिष्ठित ज्योतिषी एवं ग्रन्थकार डा. सुरेश चन्द्र मिश्र ने हिन्दुस्तान दैनिक‘‘ के रविवार 20 नवम्बर 2009 के मेरठ संस्करण के पृष्ठ-2 पर ‘‘ मूल गोत्र तालिका (40गोत्र) के क्रमांक छः पर क्षत्रिय गो़त्र रोहित का वर्णन किया है। वैदिक काल में पांच की वर्ग या समुदाय आर्य क्षत्रियों के थे जो मिलकर पंचजना-पंचजन कहे जाते थे। इनके सम्मिलित निर्णय को सभी लोग विवाद की दशा में मान लेते थे। इसी शब्द की परम्परा से आज पंचायत शब्द प्रचलित है। ये पांच वशं पुरूष या गोत्रकर्ता थे।
यादव कुल पुरूष यदु, पौरव वंश पुरूष पुरू, द्रहयु वंश पुरूष द्रुहयु, तुर्वषु और आनववंश पुरूष अनु, से शेष अन्य समुदाय निकले थे।
क्षत्रिय वंश तालिका -14 (गंधार) वं. ता.-5
इन्ही पांच वंशों के पुरूषों से महापंचायत बनती थी। प्रारम्भ में इन्हीं पंचजनों से लगभग 400 क्षत्रिय गोत्रों का प्रसार हुआ।
भारत की पष्चिमोत्तरीय सीमा पर विदेषी आक्रमण कारियों के आक्रमणों को विफल करने के लिए वहां के निवासी क्षत्रिय वर्गो एवं शासकों ने आरम्भ से ही प्रत्येक अवसर पर आक्रान्ताओं के विरूद्ध घोर संघर्ष किया किन्तु मैदानी षासकों की दुर्बल सीमान्त निति के कारण उन्हें किसी भी प्रकार की सहायता उपलब्ध हो सकी। इसलिए सीमान्त प्रदेष के वीर प्रहरी वर्ग इन प्रबल सुगठित आकान्ताअें की अपार शक्ति के सम्मूख लगभग पाँच सौ वर्षो से अधिक संघर्ष न कर सके और सिकन्दर के आक्रमण ईसा पूर्व लगभग 326 के पष्चात् से नदियाँ घाटियाँ, पर्वताश्रय पार करने लगे और मैदानी स्थानों की तरफ पूर्व व पूर्वोत्तर की तरफ आने लगे। (अध्याय-9) क्षत्रिय कुल ‘ काठी क्रम सं. 5
पष्चिमोत्तरीय-सीमा प्रान्त पंजाब की जातियों व समुदायों का विवरण जो कि - स्व. सर डैंजिल लिबैट्रषन द्वारा पंजाब की जनगणना सन् 1883 और सर एडवर्ड मैकलेजन द्वारा पंजाब की जनगणना 1892 पर आधारित, सर .एच.ए. रोज द्वारा संकलित कोष है। इसमें रोहिला परिवारों (राजपूत-क्लेन) का पर्याप्त विवरण है।
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