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Thursday, 19 June 2025

The Brave Rohillas


इतिहास के पन्नों में दर्ज है रोहिला राजपूतों का पराक्रम

पौराणिक व पुरातत्विक साक्ष्यों का अवलोकन करने पर स्पष्ट हो गया है कि रोहिला शब्द ऐतिहासिक महत्व रखता है, क्यांेकि इस शब्द से उन वीर क्षत्रिय वश्ंाों के इतिहास का परिचय मिलता है, जिन्होंने लगभग पांच सौ वर्ष ईसा पूर्व से ही  भारत भूमि पर आक्रमण करने वाले- ईरानी यूनानी, अरब, कुषाण, शक हूण आदि विदेशी आक्रान्ताओं से सर्वप्रथम भयंकर संघर्ष किया। लगभग दो हजार पांच सौ वर्षो तक वीर प्रहरियों की भाँति विकट संघर्ष करते हुए इतनी दीर्घ अवधि तक के काल खण्ड में  इन क्षत्रिय वर्गो का कितना रक्त बहा होगा, कितनी महिलाओं के माथे का सिन्दूर मिटा होगा, कितने घर, गाँव शहर बर्बाद हुए होंगे, कितने बालक व बालिकाये अनाथों की तरह भटकते फिरे होंगें।  जिन्हें अपने प्राणों से प्रिय अपनी मातृभूमि थी , संस्कृति के रक्षक इन महान वीर  प्रहरियों  को भारतीय इतिहास के पटल पर समुचित स्थान न मिल पाया। 

वस्तुतः क्षत्रिय समाज भारत की रक्षा शक्ति रहा है, समय की आवश्यकता को अनुभव करके संस्कृति और अखण्डता की रक्षा के लिए कटिबद्ध होकर क्षात्र धर्म का परिचय  देकर भारत को महान गणतंत्रात्मक विश्वशक्ति के रूप में स्थापित कराने में भारत की वीर ‘‘क्षत्रिय शक्तियों ‘‘ने अवस्मिरणीय योगदान दिया है। सामाजिक और सम्प्रदायिक एकता के बिना कोई देश आन्तरिक रूप से बलवान नहीं हो सकता। 

अपने पूर्वजों के द्वारा किये गये कार्यो को स्मरण कर प्रेरणा स्वरूप रोहिला क्षत्रियों के इतिहास के कुछ धुँधले पन्ने उकेरते हुए प्रमाणित झलकिया 



1. ईसा पूर्व 326ै, सिकन्दर ने अपने सैनिकों से मर्म स्पर्षीशब्दों में प्रार्थना की कि ‘‘मुझे भारत  से  गौरव के साथ लौट जाने दो तथा भगौडे की भाँति भागने पर मजबूर न करो।‘‘ ‘‘ सांकल दुर्ग (स्याल कोट)  के सभी कठवीर और उनके परिवार बाहर निकल गए चूंकि रोहिला राजा अजायराव वीरगति को प्राप्त हो चुका था। कठ गणराज्य के प्रमुख, निकुम्भ वंशी ( सूर्यवंश) हठवीर अजय राव की पुत्री कर्णिका के मन में  अपने पिता की मृत्यु के उपरान्त प्रतिशोध की भावना जाग उठी और वह दुर्ग में छिपकर बैठ गई, यह राजकुमारी बहुत साहसी व चुतर थी। कर्णिका को दुर्ग में अकेली फँसी रहने की कोई चिन्ता न थी। दुर्ग में प्रवेश करते ही फिलिप के हदय स्थान पर बड़ी तीव्रता से दुधारी कटार कर्णिका ने घोंप दी। फिलिप कर्णिका के तीक्ष्ण वार को संभाल न सका तथा अचेत होकर भूमि पर गिर पड़। कर्णिका गुप्त द्वारा से निकल उसकी प्रतीक्षा कर रहे कुछ जनों से जा मिली। फिलिप कुछ समय पश्चात् तडपता हुआ दम तोड गया।

    (श्री जयचन्द विद्यांलकार ‘‘ इतिहास  प्रवेश पृष्ठ 76)

‘‘    (हरि कृष्ष प्रेमी‘‘- सीमा संरक्षण)

  

   2.  यह काठी कौम वही थी जिसने सिकन्दर का मुकाबला पंजाब में किया था। बाद में वह दक्षिण में बस गई फिर मालवा होती हुई कच्छ व सौराष्ट्र में आबद हुई। इसी  जाति के नामपर सौराष्ट्र देश का नाम कठियावाड पडा। कठगणों के मुखिया जगमान को शालीवहन ने मार डाला तथा उसके कई सौ घोडे़ व ऊँट जैसलमेर ले आए‘‘।

(- कर्नल जेम्स टाड़ ‘‘ टाड़राजस्थान‘‘- कुक द्वारा सम्पादित, भाग-2 पृष्ठ 1207)

3. ‘‘मस्य दुर्ग (मश्कावती दुर्ग) सिकन्दर के आक्रमण के समय अजेय समझा जाता था। अश्वक गणराजय के रोहिला राजा अश्वकर्ण को अचानक तीव्र बाण लगा और वीरगति प्राप्त हुए। अश्वकों के हौंसले टूट गए और युद्ध बन्द करने की घोषणा कर दी और सिकन्दर ने अश्वकों को शान्तिपूर्वक दुर्ग से बाहर आने को कहा। लगभग सात हजार रोहिले अश्वक (घुड़सवार) वीर मश्कावती दुर्ग से बाहर निकल आए और अपने- अपने परिवारों सहित सात-आठ मील चलने पर विश्राम की गोद में खोए गए। अश्वकों व उनके परिवारों पर सिकन्दर की सेना ने बड़ा विकट आक्रमण किया। वीर अश्वक रोहिला क्षत्रियों ने डट कर युद्ध किया। युद्ध करते करते करते जब तक स्त्री बच्चे सब नही कट मरे तब तक युद्ध बन्द नही किया रक्त की अन्तिम बूँद के रहने तक अश्वक लड़ते रहे। सिकन्दर द्वारा  विश्वासघात करना विद्वानों द्वारा घृणित समझा गया। यूनानी इतिहास कार प्लूटार्क ने भी सिकन्दर के इस कार्य की निन्दा की।

(श्री बी0रान0 रस्तोगी, एम.ए.-प्राचीन भारत‘‘  पृष्ठ 163)

(श्री हरिकृष्ण प्रेमी ‘‘ सीमा संरक्षण पृष्ठ 31)

4. उत्तरी पाँचाल में कठगण धीरे-2 अपनी शक्ति को संगठित कर आधुनिक रोहिलखण्ड के क्षेत्रों में कठेहर राज्य की स्थापना का कार्यक्रम बनाने लगै। विस्थापित होने के पक्षचात् कुछ क्षत्रिय वीर कठगण उस प्रान्त में जाकर बसे जिसे आज कठिहर अर्थात कठेहर, बुदाँयु (बुद्धमऊ, राजा बुद्धपाल रोहिला द्वारा स्थापित) का देश कहते है।

 (डाँ केषव चन्द्र सेन इतिहास- रोहिला राजपूत पृष्ठ 27)

5. तुगलक काल में कठेहर रोहिलखण्ड के रोहिले क्षत्रियों ने अनेक विद्रोह किए जिनका सल्तनत की ओर से दमन किया गया। इस श्रेणी में रोहिला नरेष खड़ग सिंह का नाम  विद्रोहियों की श्रेणी में विषेष उल्लेखनीय माना जाता है। मुस्लिम सल्तनत के विरूद्ध विद्रोह करने के कारण कुछ इतिहासकारों ने राजा खड़ग सिंह को केवल खडगू के नाम से ही सम्बोधित किया है। 

रोहिला नरेष खड़ग सिंह रोहिलखण्ड निवासी सभी राजपूत वर्गो का माननीय नेता तथा मुस्लिम सल्तनत के लिए विद्रोही शक्तियों  का प्रमुख सेना नायक था। इस खडगूूूूूूू रोहिला सरदार ने राजपूत शक्तियों की पारस्परिक एकता को सुदृढ़ करने के लिए कठोर प्रयास किए।

 स्वतन्त्र हिन्दु राज्य के आधीनस्थ हिन्दु प्रजा, निरन्तर तुर्को से संघर्ष करती रही। बलबन जैसा शासक भी राज्य विस्तार का साहस न कर सका।‘‘ कौल से लेकर रोहिलाखण्ड (कठेहर) तक का समस्त क्षेत्र- अशान्तिमय बना हुआ था।

      (डाॅ0 एल0पी0 शर्मा) मध्यकालीन भारत पृष्ठ 103 व रोहिला क्षत्रियों का क्रमबद्ध इतिहास पृष्ठ 141 से साभार ।

6. सैययद ख्रिज खां के आक्रमण के पश्चात रोहिल खण्ड में रोहिला राजा हरी सिंह का पराभव हुआ और रोहिला क्षत्रिय वर्ग का शासकों के रूप में कोई विषेष विवरण प्रस्तुत नहीं हो सका। सम्भवतः रोहिलखण्ड से विस्थापित ये क्षत्रिय भारत के विभिन्न क्षेत्रों मेे फैल गए, और सैनिकों के रूप में सेनाओं में कार्यरत हो गए। इसके पष्चात् राजा महीचन्द (बदायूँ) के वश्ंाज गौतम गौत्रीय राणा गंगासहाय राठौर (गौत्र प्रशाखा महिचा) का उल्लेख मिला है जो अफगान आक्रान्ता अहमदशाह अब्दाली के विरूद्ध मराठों की ओर से पानीपत के युद्ध में अपने एक हजार चार सौ वीर रोहिला राजपूतों के साथ लड़ा और आर्य क्षत्रिय धर्म संरक्षण के लिए बलिदान  हो गया।

(डा/0 केशवचन्द्र सेन पानीपत, इतिहास रोहिला- राजपूत)

7. सन् 1833 में ब्रिटिश शासन के साथ समझौते के अनुरूप नवाब खानदान को हरियाणा के झज्जर से सहारनपुर आना पड़ा यहाँ आकर उन्होंने उस दौर के सैकड़ों वर्ष पूर्व किसी मराठी राजा द्वारा निर्मित इस किले को अपनी रिहाइश की शक्ल दी।‘‘

(सुनहरा इतिहास समेटे है किला नवाबगंज)

    (अमर उजाला सहारनपुर पृष्ठ 10 ,18 नवम्बर 2009)

Refrences--
 भारत भूमि और उसके वासी पृष्ठ-230 पंडित जयचंद्र विद्यालंकार
2-दून ज्योति-साप्ताहिक देहरादून 18 फरवरी 1974 
पुरुषोत्तम नागेश ओक व डॉक्टर ओमवीर शर्मा हेड ऑफ हिस्ट्री विभाग
3-क्षत्रिय वर्तमान पृष्ठ 97 व 263 ठाकुर अजित सिंह परिहार बालाघाट
4- प्राचीन भारत पृष्ठ -118,159,162 बीएम रस्तोगी इतिहास कार
5 राजतरँगनी पृष्ठ 31-39 कल्हण कृत अनुवादक नीलम अग्रवाल
6-रोहिला क्षत्रिय वन्स भास्कर ,आर आर राजपूत मूरसेन अलीगढ़
7- इतिहास रोहिला राजपूत 
डॉक्टर के सी सेन
8 - भारत का इतिहास पृष्ठ 138 डॉक्टर दया प्रकाश
9-भारतीय इतिहास मीमांसा पृष्ठ 44 जय चंद विद्यालंकार
10- भारतीय इतिहास की रूप रेखा द्वितीय भाग पृष्ठ 699 बीएम रस्तोगी
11-सीमा संरक्षण पृष्ठ 21-22 हरिकृष्ण प्रेमी
12 टॉड राजस्थान पृष्ठ 457 परिच्छेद 43 अनुवादक केशव कुमार ठाकुर
13- प्राचीन भारत का इतिहास राजपूत वन्स पृष्ठ 104 व 105कैलाश प्रकाशन लखनऊ 1970 व पृष्ठ 147
14 रोहिला क्षत्रियो का क्रमबद्ध इतिहास लेखक दर्शन लाल रोहिला 
15 राजपूत ,/क्षत्रिय वाटिका 
राजनीतिन सिंह रावत अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा
16 रिलेशन बिटवीन रोहिला एंड कठहरिया राजपूत निकुम्भ व श्रीनेत वंश 
महेश सिंह कठायत नेपाल

Tuesday, 3 June 2025

रक्त रंजीत हुई धरा रोहिलखंड रामपुर की ,सिर कटा ,धड़ लड़ता रहा रणबांके रणवीर का

रक्त रंजीत हुई धरा तीन हजार राजपूतों का संहार निहत्थे किया गया।*तेरहवीं शदाब्दी के आरंभ में उत्तर प्रदेश के बहुत बड़े भूभाग पर रोहिला राजपूतों का शासन था,जिसकी स्थापना सूर्य वंशी क्षत्रिय महाराजा रणवीर सिंह रोहिला जी ने एक स्वतंत्र राज्य के रूप में की थी। उस समय दिल्ली के सुलतानों ने आतंक मचा रखा था और सल्तनत विस्तार करने और धर्मांतरण करने में दिल्ली की पूरी शक्ति काम कर रही थी किंतु रोहिलखंड नरेश महाराजा रणवीर सिंह रोहिला से दिल्ली के सुल्तान भय खाते थे क्योंकि तीस साल तक आक्रमण करते रहने के बाद भी वे कभी रोहिलखंड पर कब्जा नहीं कर पाए।महाराजा रणवीर सिंह रोहिला सनातन धर्म के रक्षक और विधर्मी संहारक के रूप में उभर रहे थे समस्त राजपूत शक्तियों को एक मंच पर रोहिलखंड में एकत्र करके उन्होंने अनेको बार आक्रांताओ को धूल चटाई और रोहिलखंड की स्वतंत्रता पर आंच नहीं आने दी। सन 1254ईस्वी में रक्षा बंधन के दिन जब निशस्त्र राजपूत किले में राखी का त्योहार मना रहे थे और बहिनों से रक्षा सूत्र बंधवा रहे थे तो पूर्व नियोजित गद्दारी के कारण दिल्ली सुल्तान नसीरुद्दीन महमूद ने गद्दार द्वारा किले के चारो द्वार खोल देने पर अचानक निहत्थे राजपूतों पर तीस हजार की सेना लेकर लग भाग दस बजे हमला कर दिया,सभी राजपूत संख्या में कम लगभग तीन हजार होने बाद भी बड़ी बहादुरी से लड़े,राजा रणवीर सिंह रोहिला ने अद्भुत वीरता का प्रदर्शन करते हुए सांय पांच बजे तक भीषण संग्राम किया और दिल्ली की सेना को उनके ही हथियार छीन कर गाजर मूली की तरह काट डाला अंत में अकरांताओ के एक दुर्दांत खूंखवार दल ने उन्हे चारो ओर से घेर लिया ,रक्त की अंतिम बूंद रहने तक महाराजा रणवीर सिंह रोहिला ने साहस नहीं छोड़ा और दुश्मनों का काल बने रहे,संख्या में अधिक आक्रांता होने के कारण उनके टुकड़े टुकड़े कर दिए गए और बचे तो केवल हड्डियो के टुकड़े ही इतना दुर्दांत राक्षसी तरीके से राजा रणवीर सिंह को काट डाला उनकी इस वीरता को देख कर नसीरुद्दीन किले से बाहर आ गया और बचे स्त्री बच्चो को छोड़ गया लूट कर किले को चला गया पुस्तकालय को आग लगा दी। राजा रणवीर सिंह के रक्षा बंधन के दिन हुए इस बलिदान को समस्त सनातन रक्षक क्षत्रियजन शौर्य और स्वाभिमान दिवस के रूप में मनाते है।इस वर्ष सोमवार दिनांक19 अगस्त2024को क्षत्रिय सम्राट रोहिलखंड नरेश का 771वा बलिदान दिवस है। सभी से निवेदन है महापुरुषों को सम्मान देने और इतिहास संरक्षण की कड़ी में रक्षा बंधन को शौर्य दिवस के रूप में मनाए । महाराजा रणवीर सिंह रोहिला जी के नाम पर नामित चौक ,चौराहे,भवनों , पार्कों और सड़को पर सांय काल दीपक जलाएं और सनातन रक्षक के बलिदान को याद करे,प्रतिमाओं पर माल्यार्पण पर पुष्पांजलि दे और श्रद्धा सुमन अर्पित करे।अपने अपने घरों नगरों गांवों में जैसी भी व्यवस्था हो सामूहिक या व्यक्तिगत रक्षा बंधन को सांय काल अवश्य महान वीर सनातन रक्षक विधर्मी संहारक को याद करे ताकि इतिहास जिंदा रहे और भावी पीढ़ी को देश प्रेम की प्रेरणा मिले।*

*रोहिला क्षत्रिय समाज के महान वीरों को सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी जब रोहिला क्षत्रियों के अस्तित्व की रक्षा होगी अन्यथा राजनीति के शिकार कुछ षड्यंत्र कारी अन्य समाज में इस क्षत्रिय समाज को घटक बता कर विलीन करना चाहते है*
*उनके बहकावे में न आकर रोहिला क्षत्रिय समाज की रक्षा करे और भावी पीढ़ी का मार्ग दर्शन करे*
*जय जय महाराजा रणवीर सिंह रोहिला*
*जय जय राजपूताना रोहिलखंड*
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Saturday, 26 April 2025

ROHILKHAND,KATHIYAWAD(SAURASHTRA) के संस्थापक थे काठी , कठेहहरिया,निकुंभ वंश, कठ गणराज्य के संस्थापक थे रोहिला क्षत्रिय ,जिन्होंने सिकंदर को घुटनों के बल झुकने को काठगढ़ के मंदिर में मजबूर कर दिया था।

*वर्तमान_क्षत्रिय कठेहरिया_राजपूत_शूरवीरो_क़ी_शौर्यगाथाएँ*

*कठ_काठी_कठोड़े_कुलठान_कठपाल_वर्तमान*
*कठेहरिया_ठाकुर ही काठी क्षत्रिय है*
*राजपूताना रोहिलखंड,*
*क्षत्रिय_राजपूताना_रोहिलखंड* 
योद्धा विलाप करते हैं, साम्राज्य का पतन होता है: सिकंदर महान की विरासत इतिहास के सबसे उल्लेखनीय साम्राज्यों में से एक के कड़वे-मीठे अंत को दर्शाती है। 323 ईसा पूर्व में सिकंदर की मृत्यु के बाद, उसने जो विशाल साम्राज्य बनाया था, जो ग्रीस से लेकर भारत तक फैला हुआ था, वह जल्दी ही बिखर गया। 32 वर्ष की कम उम्र में उसके अचानक निधन के बाद कोई स्पष्ट उत्तराधिकारी नहीं बचा, और उसके सेनापति, जिन्हें डायडोची के नाम से जाना जाता था, ने उसके क्षेत्रों पर नियंत्रण के लिए भयंकर युद्ध किया। एक बार एकीकृत साम्राज्य युद्धरत राज्यों में विभाजित हो गया, जिसने बेजोड़ सैन्य विजय के युग का अंत कर दिया। फिर भी, सिकंदर की विरासत युद्ध के मैदान से कहीं आगे तक चली गई। उसके अभियानों ने ग्रीक संस्कृति, भाषा और विचारों को पूरे ज्ञात विश्व में फैलाया, उन्हें स्थानीय परंपराओं के साथ मिलाया, जिसे हेलेनिस्टिक युग के रूप में जाना जाता है। साम्राज्य के पतन के बावजूद, कला, विज्ञान, दर्शन और राजनीतिक विचारों पर सिकंदर की दृष्टि और प्रभाव ने आने वाली सदियों तक सभ्यताओं को आकार देना जारी रखा, जिससे इतिहास के सबसे महान और सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों में से एक के रूप में उसका स्थान सुनिश्चित हुआ।
काठी दरबार भव्यअतित कि श्रुंखला मे एक प्रसिद्ध  नाम,यह एक क्षत्रिय संघ जो वीरता  का वैभव,शौर्य का प्रतिक और अपने कठोर स्वाभीमानी गुणो से प्रसिद्ध  हे।
    इनके बारे मे यह भी कहा जाता हे कि,
"काल भी अगर छोड दे लेकिन काठी नहीं  छोडता"
    (Time (Death) Forgets But Not Kathi)
 थोडी कुछ शताब्दियो से उन्होने स्थिर  रुप से अपना निवासस्थान सौराष्ट्र को बना लिया,और इतना हि नहि युगो से पुराण प्रसिद्ध  सौराष्ट्र नाम इन्हि के कारण पलटकर 'काठीयावाड' नाम से प्रसिद्ध  हुआ  ऐसी  इन्होने इस विस्तार कि संस्कृति  मे अमीट छाप छोडी हे।
कठ गणराज्य वाहिक प्रदेश(हाल के पंजाब) मे प्रसिध्ध था इनकि राजधानी (संगल)सांकल थी,
एक उल्लेख मिलता हे कि इन पंजाब वासी कठो के नाम से  अफगानिस्तान के गजनी प्रांत मे ‘काटवाज’ क्षेत्र हे।
 कठ लोगों के शारीरिक सौदंर्य और अलौकिक शौर्य की ग्रीक इतिहास लेखकों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है, ग्रीक लेखकों के अनुसार कठों के यहाँ यह प्रथा प्रचलित थी कि वे केवल स्वस्थ एवं बलिष्ठ संतान को ही जीवित रहने देते थे। ओने सीक्रीटोस लिखता है कि वे सुंदरतम एवं बलिष्ठतम व्यक्ति को ही अपना शासक चुनते थे, ग्रिक इतिहासकारो ने कठो को कठोइ या काठीयन जैसे नामो से निर्देषीत किया हे, पाणिनी के ‘अष्टाध्यायी’ मे कठो का उल्लेख हे, पंतजली के महाभाष्य के मत से कठ वैंशपायन के शिष्य थे।इनकि प्रवर्तित वेदसंहिता कि शाखा ‘काठक’ नाम से प्रसिध्ध थी । काठक कापिष्ठल संहिता जैतारायण, प्रत्धर्न(दिवोदासी) ,भीमसेनी इन राजाओ का नाम मिलते हे जीन्होने राजसूय यज्ञ किया था।
   इन्होने कइ बार पोरस को हराया था।इसा पूर्व ३२६ मे सिकंदर की विशाल सेना हिंदकुश कि पर्वतमाला के इस पार अश्वक और अष्टको के राज्य को हराकर झेलम पार कर पोरस से भीडने आ पहोंची,पोरस का पुत्र मारा गया,पोरस ने संधी कर ली जीसमे सैनीक सहायता के बदले ब्यास नदी तक के आगे जीते जाने वाले प्रदेशो पर पोरस सिंकदर के सहायक के तौर पर शासन करेगा, इसके बाद अधृष्ट(अद्रेसाइ) ने बिना लडे आधीनता स्वीकार कर ली, बाद मे कठ के नगर पर सेना आ खडी हुइ, कठ स्वतंत्रता प्रेमी थे, जो अपने साहस के लिए सबसे अधीक विख्यात थे,उन्होने शकट व्युह रचकर सिंकदर कि सेना पर भीतर तक भीषण  आक्रमण किया और जिसमें  खुद सिंकदर हताहत हो गया, संधी अनुसार पोरस ने २०,००० सैनीको का दल सिंकदर कि सहायता मे भेजा जीसमे हाथी भी थे जीनसे शकट व्युह तुट सकता था, तब कठो कि पराजय मुमकिन हो पाइ, करीबन १७००० कठ मारे गये और कइ बंदि बनाए गये, वहा पर नारीयो ने जौहर भी किया था एसा उल्लेख भी कइ जगह हुआ हे।
कच्छ के पोलीटकल एजन्ट मेकमर्डो जो काफि प्रतिभावान विद्बान थे वे काठी क्षत्रियो से प्रभावित थे इन्होने काठीओ मे विरता का नैतिक गुण,शक्ति,मुख पर तेजस्वीता और स्त्री सन्मान कि भावना सबधे अधीक पाइ थी जीसकि उनके विवरणो द्वारा हमे जानकारी मीलती हे ।
   सूर्यवंशी राजा व्रुतकेतु ने माळवा मे राज्य स्थापीत किया था,जीनके बाद उनके वंशजो जो की मैत्रक कुल और कठगण(काठी)ओने सौराष्ट्र मे प्रस्थान किया ,काठी वहा से कच्छ और राजस्थान के कुछ क्षेत्र मे गये कच्छ मे उन्होने अंजार,बन्नी,कंथकोट,कोटाय,भद्रेश्वर,पलाडीया आदि विस्तारो और कुछ सिंध और द.राजस्थान मे संस्थान और छोटी बडी जागीर स्थापीत कर दि और मैत्रक राजवंश ने वलभीपुर, तळाजा,वळा पंथक जैसो क्षेत्रो मे वर्चस्व जमाया|वलभी कि अपनी सवंत, मुद्रा और विद्यापीठ थी।मैत्रक विजयसेन ‘भटार्क’ ने वलभी साम्राज्य कि स्थापना कि थी। कुछ समय बाद यह वंश ‘वाळा राजकुल’ से जाना गया, जीसमे कइ समर्थ महापुरुषो ने जन्म लीया यह वाळा कुल भी काठी नाम से हि परापुर्व से जाना जाता था।
काठीओ का नाम पृथ्वीराज और कनोज के युध्ध मे उल्लेखीत हुआ हे, और अणहिलपुर को अपनी मरजी पुर्वक सहायता करते थे ।
और इधर कच्छ मे जाडेजा राजपूतो से अविरत संघर्षो के चलते काठीओ ने कच्छ छोडकर सौराष्ट्र मे आगमन किया ।
गढ अयोध्या निकाश भयो -गादि ठठ्ठा मुलथान
सूर्यदेव स्थापन कर्या-गढ मुलक फेर थान
        -रचनाःबडवाजी(बल्ला राजवंश व्याख्यान माला)
इस पंक्ति मे दो प्रसिध्ध सूर्य मंदिरो के स्थानो का उल्लेख हे, मुलतान(मुलःस्थान,हाल पाकिस्तान) और थान(स्थान यह नाम भी वाळा और काठीओ के सौराष्ट्र मुलस्थान की याद मे हि पडा और जो काठीयावाड मे सुरेन्द्रनगर जीले मे स्थीत हे।)
   -मुलतान का सूर्यमंदिर अब अवशेषो मे हि शेष हे पहेले वो ९ मी सदि तक विद्यमान था, परंतु थान का सूर्य मंदिर अपनी मग ब्र्हामणो कि शील्प शैली मे सज्ज होलबूट और मुगुट पहने भगवान सूर्यनारायण कि मनोहर प्राचिन प्रतिमा के साथ मौजुद हे,वेसे तो यह मंदिर पौराणीक हे किंतु इसका जिर्णोद्वार और किल्लेबंध रचना काठीओ द्वारा हुइ और बाद मे यह मंदिर सूरजदेवल के नाम से प्रसिध्ध हुआ। भारत के आराजक युग मे गुलाम,खिलजी,तुगलक,सैयद,लोदि,सुरी और उसके बाद मुगल इस तरह एक के बाद एक यवन साम्राज्य स्थापीत हुए, जो पुर्वकाल मे अनेक गणराज्यो मे बटा हुआ होकर भी एक था,वह भारत खंडीत हो रहा था ।12 वि शताब्दि के बाद से इस मंदिर पर कइ भीषण हमले होने से यह मंदिर तुटता रहा और फिर से उसका जिर्णोद्वार होता रहा । जीससे यह स्थान आस्था एवं संग्राम की भुमी हे। इनके बाद अंग्रेज और मराठा कि जुल्मी पेशकदमी और धाड से प्रदेश पुरा आंक्रत था तब काठी क्षत्रियो ने अच्छी तरह से युध्ध-रणनीती,संध बनाकर सौराष्ट्र के प्रांतो को जिता और अविरत युध्ध और संघर्ष किया *‘जितस्येवसुधाकाम्ये दैदिप्य सूर्य नभे’* और जीत के साथ नभ मे दिपमान सूर्य के भांती चमकते रहे इसके चलते मराठाओ ने हि इस प्रदेश को काठीयावाड नाम घोषीत किया,यह एक इतिहास कि विरल घटना होगी जिसमें आक्रांताओ द्वारा जन समुदाय से प्रतिकार होने पर प्रदेश का नामाभिधान हो गया।
काठी क्षत्रीयो का प्रत्येक व्यक्ति गण हे और इनकि संघीय विचारधारा रहि हे, काठीयावाड मे उन्होने अन्य क्षत्रीयो को अपने साथ अपनी परंपरा मे जोडा और संघीय शक्ति मजबुत कि,तथा बगसरा दरबार वालेरावाळा ने १६ वी सदि के उतराध मे सहस्त्र भोज यज्ञ कर लग्न और रीवाज संबधी चुस्त प्रथा का निर्माण संघ को और मजबुत करने के लिए किया तथा जनपद युगीन क्षत्रिय परंपरा को जीवंत रखी।
और इनमे समविष्ट अन्य क्षत्रीय इस प्रकार हे,
राव धाधल के पुत्र बुढाजी और बुढाजीके पुत्र कालुसीह थे.वी.सं १४६६ और शा.शके 1328मे जब कालुसींहजी धाधल अचलदास खीचीके साथ युद्ध कर रहे थे तब वासुकी अवतार गोगाजीने कालुसींह को युद्धमे सहायकी थी. कालुसींहने अपना कर्तव्य नीभाते हुवे वासुकीदेवको अपने इस्टदेव माना. कालुसिंहने फीर पांच वार्ष तक अपनी जमीन पर राज कीया. बादमे कालुसीह धाधल शाके 1333 और वी.सं 1471मे अपना पुरा सेन्य और संघ लेकर द्धवारका की यात्रा कि . तब द्धावरका की गादी पे वाढेर शाखाके के राठौर का राज था जो कालुसींहकी पुर्वज राव सिंहाजी के वंशज थे. एक मास तक स्नेहसे द्धारका रहनेके बाद वापस मारवाड लोटने चले. कालुसिहजी मध्य सौराष्ट्रके पंचाल प्रदेशमे शाके 1333 मागसर सुद 9 के पेहले प्रोहर मे कालुसीह और उनका सेन्य थानगढके पास लाखामाची गाव पोहचे. कच्छके जामके साथ युद्धके हेतु काठी राजपुत तब लाखामाचीमे युद्धकी तयारी कर रहे थे.कालुसीहने काठी राजपुतो को जामके साथ चल रहे युद्धमे सहायता की और वासुकीदेव की आज्ञा से कालुसीह काठी राजपुत संघ मे शामील हुए. 

"कच्छ ना जाम ते कारमा आविया लाविया फ़ौज ते लाख लारा । 
एहना बाप नो वैर वालन वटा पत्तावत गोतता खंड पारा ।। 
सबल सौरठ वीसे साथ ने सांभली द्वेष थी वेरिया दाव दाख्यो ।
 ते दी खत्री वट कारने आफल्या अड़ी खम्भ धरा स्तम्भ धांधले धरम राख्यो॥
  ओखा के वेरावळजी वाढेर(राठोर) भी काठी संघ मे शामील हुए थे इनसे गीडा, तीतोसा, तकमडीया, भांभला इन पेटा राठोड कुल कि पेटा शाखा का उदभव हुआ, जालोरगढ के राजा विरमदेव सोनागरा(चौहान) के पुत्र केशरदेव इनसे जळु शाखा का उदभव हुआ, परमारो राजपूतो मे से बसीया,विंछीया,माला,जेबलीया, और हळवद राजभायात मालसिंहजी जाला से खवड शाखा का उदभव हुआ, कंबध युध्ध करने वाला प्रतापी विर नागाजण जेठवा बचपन मे अपने काठी मामा के यहा पले बडे , इनसे वांक और वरु शाखा का उदभव हुआ तथा चावडा राजपूत और कइ क्षत्रियो को अपने साथ जोडकर संघ को सशक्त किया।इस प्रकार संघ कि शक्ति से वे अपना अस्तीत्व कायम रख पाए ।
काठी दरबारों ने युद्ध के लिए अश्व की एक ब्रीड तैयार की थी जिसका नाम काठी ब्रिड हे है। ये अश्व काफी मामलो में बाकी ब्रीड से आगे है।। महाराणा प्रताप का अश्व चेतक भी एक काठी घोडा था।

कइ लेखक विदो ने इन विरबाहुओ के शौर्य का बखान किया हे यहा प्रसिध्ध लेखक स्व.चंद्रकांत बक्षी के शब्दो मेःकाठी ज्ञाती संख्या मे कम फिर भी शूरविर कोम हे, कम संख्या मे होकर भी पुरे प्रदेश को काठीयावाड घोषीत कर सके वह उनकि शुरविरता,कुनेह,और लडायक नीती का उच्चत्म प्रमाणपत्र हे और यह सिध्धी हासिल करने मे कइ काठी विर,संत और सतिओ के बलीदान हे।

सौजन्यः काठी संस्कृतिदीप संस्थान☀

सदर्भः
 -Arrian, Anabasis of Alexander, V.22-24
-Bharat Discovery
 -An Inquiry Into the Ethnography of Afghanistan By H. W. Bellew page17 
-कर्नल टोड कृत राज. का इतिहास & Travels in -Western India
-जे. डबल्यु. वोटसन
-काठी संस्कृति अने इतिहास-डो.श्री प्रद्युमनभाइ खाचर
-काठीओ अने काठीयावाड -डो.श्री प्रद्युमनभाइ खाचर
-महाविरसिंह छिंताबा(भीलवाडा)
-पथीक मेगेजीन -के.का शास्त्री
-द.श्री भोजवाळा चुडा-सोरठ
-काठी अभ्युदय
-macmurdo. Trans. Lit. soc.

*ठाकुर_राणा_प्रताप_सिंह उर्फ दीपक_सिंह_कठेहरिय श्री_राष्ट्रीय_राजपूत_करणी_सेना_सम्भल_उत्तर_प्रदेश*