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Monday, 23 December 2024

ROHILA THE BRAND

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 में भी रोहिले राजपूतों ने अपना योगदान दिया, ग्वालियर के किले में रानी लक्ष्मीबाई को हजारों की संख्या में रोहिले राजपूत मिले, इस महायज्ञ में स्त्री पुरुष सभी ने अपने गहने, धन आदि एकत्र कर झांसी की रानी के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए सम्राट बहादुरशाह- जफर तक पहुंचाए। अंग्रेजों ने ढूंढ-ढूंढ कर उन्हें काट डाला जिससे रोहिले राजपूतों ने अज्ञातवास की शरण ली। राजपूतों की हार के प्रमुख कारण थे हाथियों का प्रयोग, सामंत प्रणाली व आपसी मतभेद, ऊंचे व भागीदार कुल का भेदभाव (छोटे व बड़े की भावना) आदि। सम्वत 825 में बप्पा रावल चित्तौड़ से विधर्मियों को खदेड़ता हुआ ईरान तक गया। बप्पा रावल से समर सिंह तक 400 वर्ष होते हैं, गह्लौतों का ही शासन रहा। इनकी 24 शाखाएं हैं। जिनके 16 गोत्र (बप्पा रावल के वंशधर) रोहिले राजपूतों में पाए जाते हैं। चितौड़ के राणा समर सिंह (1193 ई.) की रानी पटना की राजकुमारी थी इसने 9 राजा, 1 रावत और कुछ रोहिले साथ लेकर मौ. गोरी के गुलाम कुतुबद्दीन का आक्रमण रोका और उसे ऐसी पराजय दी कि कभी उसने चितौड़ की ओर नहीं देखा।  रोहिलखंड के बीचोबीच स्थित संभल के हरिहर मंदिर को रोहिला राजपूतों ने तीन बार आक्रमण करके विधर्मियों से मुक्त कराया था जो सन 1857तक हिंदुओ के कब्जे में रहा,ब्रिटिश राज में इस मंदिर को 1920ईस्वी में भारतीय पुरातत्व विभाग को सौंप दिया गया था।।रोहिला शब्द क्षेत्रजनित, गुणजनित व मूल पुरुष नाम-जनित है। यह गोत्र जाटों में भी रूहेला, रोहेला, रूलिया, रूहेल, रूहिल, रूहिलान नामों से पाया जाता है। रूहेला गोत्र जाटों में राजस्थान व उ. प्र. में पाया जाता है। रोहेला गोत्र के जाट जयपुर में बजरंग बिहार ओर ईनकम टैक्स कालोनी टौंक रोड में विद्यमान है। झुनझुन, सीकर, चुरू, अलवर, बाडमेर में भी रोहिला गोत्र के जाट विद्यमान हैं। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में रोहेला रोहल रोहिलान गोत्र के जाटों के बारह गाँव हैं। महाराष्ट्र में रूहिलान गोत्र के जाट वर्धा में केसर व खेड़ा गांव में विद्यमान हैं।रोहतक के पास रोहद आदि स्थानों पर रोहिल रूहिल रोहल रोहिल उपनाम के जाट विद्युमान है जो खुद को महाराज रोहा के वंशज बताते हैं। भिवानी में रोहिल उपनाम के जाट विद्यमान है।मुगल सम्राट अकबर ने भी राजपूत राजाओं को विजय प्राप्त करने के पश्चात् रोहिला-उपाधि से विभूषित किया था, जैसे राव, रावत, महारावल, राणा, महाराणा, रोहिल्ला, रहकवाल आदि।रोहिलखंड से विस्थापित रोहिला-राजपूत समाज, क्षत्रियों का वह परिवार है जो सरल ह्रदयी, परिश्रमी, राष्ट्रप्रेमी, स्वधर्मपरायण, स्वाभिमानी व वर्तमान में अधिकांश अज्ञातवास के कारण साधनविहीन है। 40 प्रतिशत कृषि कार्य से, 30 प्रतिशत श्रम के सहारे व 30 प्रतिशत व्यापार व लघु उद्योगों के सहारे जीवन यापन कर रहे हैं। इनके पूर्वजों ने हजारों वर्षों तक अपनी आन, मान, मर्यादा की रक्षा के लिए बलिदान दिए हैं और अनेको आक्रान्ताओं को रोके रखने में अपना सर्वस्व मिटाया है। गणराज्य व लोकतंत्रात्मक व्यवस्था को सजीव बनाये रखने की भावना के कारण वंश परंपरा के विरुद्ध रहे, करद राज्यों में भी स्वतंत्रता बनाये रखी। कठेहर रोहिलखण्ड की स्थापना से लेकर सल्तनत काल की उथल पुथल, मार काट, दमन चक्र तक लगभग आठ सौ वर्ष के शासन काल के पश्चात् 1857 के ग़दर के समय तक रोहिले राजपूतों ने राष्ट्रहित में बलिदान दिये हैं। क्रूर काल के झंझावातो से संघर्ष करते हुए क्षत्रियों का यह रोहिला परिवार बिखर गया है, इस समाज की पहचान के लिए भी आज स्पष्टीकरण देना पड़ता है। कैसा दुर्भाग्य है? यह क्षत्रिय वर्ग का। जो अपनी पहचान को भी टटोलना पड़ रहा है। परन्तु समय के चक्र में सब कुछ सुरक्षित है। इतिहास के दर्पण में थिरकते चित्र, बोलते हैं, अतीत झांकता है, सच सोचता है कि उसके होने के प्रमाण धुंधले-धुंधले से क्यों हैं? हे- क्षत्रिय तुम धन्य हो, पहचानों अपने प्रतिबिम्बों को –

क्षत्रिय एकता के बिगुल FOONK सब  _धुंधला _धुंधला छंटने दो।

हो akhand भारत के राजपुत्र, खण्ड खण्ड में न सभी को  batne   दो।।
संकलन
समय सिंह पुंडीर
प्रकाशित
क्षत्रिय आवाज मासिक पत्रिका
अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा १८९७
*राजपूत विशेषांक*
02मई 2011ईस्वी


Saturday, 14 December 2024

RAJPUTANA ROHILKHAND

जय जय राजपूताना बुंदेलखंड,रोहिलखंड,बघेलखंड,कुमायुखंड उत्तराखंड (भरतखण्ड)
क्षत्रिय अस्तित्व न्याय मोर्चा सभी क्षत्रिय साम्राज्य को खोज खोज कर सामने लाने की मुहिम में है बहुत कुछ छिपाया गया और हमे नही पढ़ाया जाता किंतु क्षत्रिय कभी मिटता नही वह शास्वत है सनातन है उसकी रक्षा स्वयं सृष्टि रचयिता करता है ,क्षत्रिय अस्तित्व न्याय मोर्चा किसी भी क्षत्रिय के अस्तित्व को संरक्षित करने का कार्य कर रहा है,कितना हास्यास्पद है कि वैदिक कालीन उत्तरी पांचाल में स्थापित राजपूताना रोहिलखंड के क्षत्रिय के स्थान पर आक्रांता अफगानों का इतिहास पढ़ाया जाता है अट्ठारहवीं सदी से आगे राजपूत इतिहास को गायब ही कर दिया गया विक्की पीडिया से भी हटा दिया गया है किंतु अब और अन्याय इतिहास के साथ सहन नही किया जायेगा।।

रोहिल्ला उपाधि -

 शूरवीर, अदम्य - साहसी विशेष युद्ध कला में प्रवीण, उच्च कुलीन सेनानायको, और सामन्तों को उनके गुणों के अनुरूप क्षत्रिय वीरों को तदर्थ उपाधि से विभूषित किया जाता था - जैसे - रावत - महारावत, राणा, महाराणा, ठाकुर, नेगी, रावल, रहकवाल, रोहिल्ला, समरलछन्द, लखमीर,(एक लाख का नायक) आदि। इसी आधार पर उनके वंशज भी आजतक राजपूतों के सभी गोत्रों में पाए जाते हैं। "वभूव रोहिल्लद्व्यड्कों वेद शास्त्रार्थ पारग: । द्विज: श्री हरि चन्द्राख्य प्रजापति समो गुरू : ।।2।। ( बाउक का जोधपुर लेख ) - सन 837 ई. चैत्र सुदि पंचमी - हिंदी अर्थ - "वेद शास्त्र में पारंगत रोहिल्लाद्धि उपाधिधारी एक हरिश्चन्द्र नाम का ब्राह्मण था" जो प्रजापति के समान था हुआ ।।6।। ( गुज्जर गौरव मासिक पत्रिका - अंक 10, वर्ष ।।माह जौलाई 1991 पृष्ठ - 13) (राजपुताने का इतिहास पृष्ठ - 147) (इतिहास रोहिला - राजपूत पृष्ठ - 23) (प्राचीन भारत का इतिहास, राजपूत वंश, - कैलाश - प्रकाशन लखनऊ सन 1970 ई. पृष्ठ - 104 -105 - ) रोहिल्लद्व्यड्क रोहिल्लद्धि - अंक वाला या उपाधि वाला । सर्वप्रथम प्रतिहार शासक द्विज हरिश्चन्द्र को रोहिल्लद्धि उपाधि प्राप्त हुई । बाउक,प्रतिहार शासक विप्र हरिश्चन्द्र के पुत्र कवक और श्रीमति पदमनी का पुत्र था वह बड़ा पराक्रमी और नरसिंह वीर था। प्रतिहार एक पद है, किसी विशेष वर्ण का सूचक नही है। विप्र हरिश्चन्द्र प्रतिहार अपने बाहुबल से मांडौर दुर्ग की रक्षा करने वाला था, अदम्य साहस व अन्य किसी विशेष रोहिला शासक के प्रभावनुरूप ही रोहिल्लद्व्यड्क उपाधि को किसी आधार के बिना कोई भी व्यक्ति अपने नाम के साथ सम्बन्ध करने का वैधानिक रूप में अधिकारी नही हो सकता। उपरोक्त से स्पष्ट है कि बहुत प्राचीन काल से ही गुणकर्म के आधार पर क्षत्रिय उपाधि "रोहिल्ला" प्रयुक्त । प्रदत्त करने की वैधानिक व्यवस्था थी। जिसे हिन्दुआसूर्य - महाराजा पृथ्वीराज चौहान ने भी यथावत रखा। पृथ्वीराज चौहान की सेना में एक सौ रोहिल्ला - राजपूत सेना नायक थे । "पृथ्वीराज रासौ" - चहूँप्रान, राठवर, जाति पुण्डीर गुहिल्ला । बडगूजर पामार, कुरभ, जागरा, रोहिल्ला ।। इस कवित्त से स्पष्ट है । कि - प्राचीन - काल में रोहिला- क्षत्रियों का स्थान बहुत ऊँचा था। रोहिला रोहिल्ल आदि शब्द राजपुत्रों अथवा क्षत्रियों के ही द्योतक थे । इस कवित्त के प्रमाणिकता "आइने अकबरी", 'सुरजन चरिता' भी सिद्ध करते हैं । युद्ध में कमानी की तरह (रोह चढ़ाई करके) शत्रु सेना को छिन्न - भिन्न करने वाले को रहकवाल, रावल, रोहिल्ला, महाभट्ट कहा गया है। महाराज पृथ्वीराज चौहान की सेना में पांच गोत्रों के रावल थे - रावल - रोहिला रावल - सिन्धु रावल - घिलौत (गहलौत) रावल - काशव या कश्यप रावल - बलदया बल्द मुग़ल बादशाह अकबर ने भी बहादुरी की रोहिल्ला उपाधि को यथावत बनाए रखा जब अकबर की सेना दूसरे राज्यों को जीत कर आती थी तो अकबर अपनी सेना के सरदारों को,बहादुर जवानों बहादुरी के पदक (ख़िताब,उपाधि) देता था। एक बार जब महाराणा मान सिंह काबुल जीतकर वापिस आए तो अकबर ने उसके बाइस राजपूत सरदारों को यह ख़िताब दी (उपाधि से सम्मानित किया) बाई तेरा हर निरकाला रावत को - रावल जी चौमकिंग सरनाथा को - रावल झंड्कारा कांड्कड को - रोहिल्ला रावत मन्चारा - कांड्कड काम करन, निरकादास रावत को रावराज और रूहेलाल को रोहिला
गौरवशाली इतिहास के कुछ स्वर्णाक्षर (रोहिला क्षत्रिय) भारत वर्ष का क्षेत्रफल 42 ,02 ,500 वर्ग किमी था । रोहिला साम्राज्य 25 ,000 वर्ग किमी 10 ,000 वर्गमील में फैला हुआ था । रोहिला, राजपूतो का एक गोत्र , कबीला (परिवार) या परिजन- समूह है जो कठेहर - रोहिलखण्ड के शासक एंव संस्थापक थे |मध्यकालीन भारत में बहुत से राजपूत लडाको को रोहिला की उपाधि से विभूषित किया गया. उनके वंशज आज भी रोहिला परिवारों में पाए जाते हैं । रोहिले- राजपूत प्राचीन काल से ही सीमा- प्रांत, मध्य देश (गंगा- यमुना का दोआब), पंजाब, काश्मीर, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश में शासन करते रहे हैं । जबकि मुस्लिम-रोहिला साम्राज्य अठारहवी शताब्दी में इस्लामिक दबाव के पश्चात् स्थापित हुआ. मुसलमानों ने इसे उर्दू में "रूहेलखण्ड" कहा । 1702 से 1720 ई तक रोहिलखण्ड में रोहिले राजपूतो का शासन था. जिसकी राजधानी बरेली थी । रोहिले राजपूतो के महान शासक "राजा इन्द्रगिरी" ने रोहिलखण्ड की पश्चिमी सीमा पर सहारनपुर में एक किला बनवाया,जिसे "प्राचीन रोहिला किला" कहा जाता है । सन 1801 ई में रोहिलखण्ड को अंग्रेजो ने अपने अधिकार में ले लिया था. हिन्दू रोहिले-राजपुत्रो द्वारा बनवाए गये इस प्राचीन रोहिला किला को 1806 से 1857 के मध्य कारागार में परिवर्तित कर दिया गया था । इसी प्राचीन- रोहिला- किला में आज सहारनपुर की जिला- कारागार है । "सहारन" राजपूतो का एक गोत्र है जो रोहिले राजपूतो में पाया जाता है. यह सूर्य वंश की एक प्रशाखा है जो राजा भरत के पुत्र तक्षक के वंशधरो से प्रचालित हुई थी । फिरोज तुगलक के आक्रमण के समय "थानेसर" (वर्तमान में हरियाणा में स्थित) का राजा "सहारन" ही था । दिल्ली में गुलाम वंश के समय रोहिलखण्ड की राजधानी "रामपुर" में राजा रणवीर सिंह कठेहरिया (काठी कोम, निकुम्भ वंश, सूर्यवंश रावी नदी के काठे से विस्थापित कठगणों के वंशधर) का शासन था । इसी रोहिले राजा रणवीर सिंह ने तुगलक के सेनापति नसीरुद्दीन चंगेज को हराया था. 'खंड' क्षत्रिय राजाओं से सम्बंधित है, जैसे भरतखंड, बुंदेलखंड, विन्धयेलखंड , रोहिलखंड, कुमायुखंड, उत्तराखंड आदि । प्राचीन भारत की केवल दो भाषाएँ संस्कृत व प्राकृत (सरलीकृत संस्कृत) थी । रोहिल प्राकृत और खंड संस्कृत के शब्द हैं जो क्षत्रिय राजाओं के प्रमाण हैं । इस्लामिक नाम है दोलताबाद, कुतुबाबाद, मुरादाबाद, जलालाबाद, हैदराबाद, मुबारकबाद, फैजाबाद, आदि । रोहिले राजपूतो की उपस्तिथि के प्रमाण हैं । योधेय गणराज्य के सिक्के, गुजरात का (1445 वि ) ' का शिलालेख (रोहिला मालदेव के सम्बन्ध में), मध्यप्रदेश में स्थित रोहिलखंड रामपुर में राजा रणवीर सिंह के किले के खंडहर, रानी तारादेवी सती का मंदिर , पीलीभीत में राठौर रोहिलो (महिचा- प्रशाखा) की सतियों के सतियों के मंदिर, सहारनपुर का प्राचीन रोहिला किला, मंडोर का शिलालेख, " बड़ौत में स्तिथ " राजा रणवीर सिंह रोहिला मार्ग "
नगरे नगरे ग्रामै ग्रामै विलसन्तु संस्कृतवाणी । सदने - सदने जन - जन बदने , जयतु चिरं कल्याणी ।। जोधपुर का शिलालेख, प्रतिहार शासक हरीशचंद्र को मिली रोहिल्लाद्व्यंक की उपाधि, कई अन्य राजपूतो के वंशो को प्राप्त उपाधियाँ, 'पृथ्वीराज रासो', आल्हाखण्ड - काव्यव, सभी राजपूत वंशो में पाए जाने वाले प्रमुख गोत्र । अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा भारत द्वारा प्रकाशित पावन ग्रन्थ क्षत्रिय वंशाणर्व (रोहिले क्षत्रियों का राज्य रोहिलखण्ड का पूर्व नाम पांचाल व मध्यप्रदेश), वर्तमान में अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा से अखिल भारतीय रो. क्ष. वि. परिषद को संबद्धता प्राप्त होना, वर्तमान में भी रोहिलखण्ड (संस्कृत भाषा में) क्षेत्र का नाम यथावत बने रहना, अंग्रेजो द्वारा भी उत्तर रेलवे को "रोहिलखण्ड - रेलवे" का नाम देना जो बरेली से देहरादून तक सहारनपुर होते हुए जाती थी, वर्तमान में लाखो की संख्या में पाए जाने वाले रोहिला-राजपूत, रोहिले-राजपूतों के सम्पूर्ण भारत में फैले हुए कई अन्य संगठन अखिल भारतीय स्तर पर 'राजपूत रत्न' रोहिला शिरोमणि डा. कर्णवीर सिंह द्वारा संगठित एक अखिल भारतीय रोहिला क्षत्रिय विकास परिषद (सम्बद्ध अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा) पंजीकरण संख्या - 545, आदि। 12. पानीपत की तीसरी लड़ाई (रोहिला वार) में रोहिले राजपूत- राजा गंगासहाय राठौर (महेचा) के नेतृत्व में मराठों की ओर से अफगान आक्रान्ता अहमदशाह अब्दाली व रोहिला पठान नजीबदौला के विरुद्ध लड़े व वीरगति पाई । इस मराठा युद्ध में लगभग एक हजार चार सौ रोहिले राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए । (1761-1774 ई .) (इतिहास -रोहिला-राजपूत) 13. प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 में भी रोहिले राजपूतों ने अपना योगदान दिया, ग्वालियर के किले में रानी लक्ष्मीबाई को हजारों की संख्या में रोहिले राजपूत मिले, इस महायज्ञ में स्त्री पुरुष सभी ने अपने गहने धन आदि एकत्र कर झाँसी की रानी के साथ अंग्रेजो के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए सम्राट बहादुरशाह- जफर तक पहुँचाए । अंग्रेजों ने ढूँढ-ढूँढ कर उन्हें काट डाला जिससे रोहिले राजपूतों ने अज्ञातवास की शरण ली। 14. राजपूतों की हार के प्रमुख कारण थे हाथियों का प्रयोग, सामंत प्रणाली व आपसी मतभेद, ऊँचे व भागीदार कुल का भेदभाव (छोटे व बड़े की भावना) आदि। 15. सम्वत 825 में बप्पा रावल चित्तौड़ से विधर्मियों को खदेड़ता हुआ ईरान तक गया। बप्पा रावल से समर सिंह तक 400 वर्ष होते हैं, गह्लौतों का ही शासन रहा। इनकी 24 शाखाएँ हैं। जिनके 16 गोत्र (बप्पा रावल के वंशधर) रोहिले राजपूतों में पाए जाते हैं। 16. चितौड़ के राणा समर सिंह (1193 ई.) की रानी पटना की राजकुमारी थी इसने 9 राजा, 1 रावत और कुछ रोहिले साथ लेकर मौ. गोरी के गुलाम कुतुबद्दीन का आक्रमण रोका और उसे ऐसी पराजय दी कि कभी उसने चितौड़ की ओर नही देखा। 17. रोहिला शब्द क्षेत्रजनित, गुणजनित व 'मूल पुरुष' नाम-जनित है। यह गोत्र जाटों में भी रूहेला, रोहेला, रूलिया, रूहेल , रूहिल, रूहिलान नामों से पाया जाता है। 18. रूहेला गोत्र जाटों में राजस्थान व उ. प्र. में पाया जाता है। रोहेला गोत्र के जाट जयपुर में बजरंग बिहार ओर ईनकम टैक्स कालोनी टौंक रोड में विद्यमान है। झुनझुन, सीकर, चुरू, अलवर, बाडमेर में भी रोहिला गोत्र के जाट विद्यमान हैं । उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में रोहेला गोत्र के जाटों के बारह गाँव हैं। महाराष्ट्र में रूहिलान गोत्र के जाट वर्धा में केसर व खेड़ा गाँव में विद्यमान हैं। 19. मुगल सम्राट अकबर ने भी राजपूत राजाओं को विजय प्राप्त करने के पश्चात् रोहिला-उपाधि से विभूषित किया था, जैसे राव, रावत, महारावल, राणा, महाराणा, रोहिल्ला, रहकवाल आदि। 20. "रोहिला-राजपूत" समाज , क्षत्रियों का वह परिवार है जो सरल ह्रदयी, परिश्रमी,राष्ट्रप्रेमी,स्वधर्मपरायण, स्वाभिमानी व वर्तमान में अधिकांश अज्ञातवास के कारण साधनविहीन है। 40 प्रतिशत कृषि कार्य से,30 प्रतिशत श्रम के सहारे व 30 प्रतिशत व्यापार व लघु उद्योगों के सहारे जीवन यापन कर रहे हैं। इनके पूर्वजो ने हजारों वर्षों तक अपनी आन, मान, मर्यादा की रक्षा के लिए बलिदान दिए हैं और अनेको आक्रान्ताओं को रोके रखने में अपना सर्वस्व मिटाया है । गणराज्य व लोकतंत्रात्मक व्यवस्था को सजीव बनाये रखने की भावना के कारण वंश परंपरा के विरुद्ध रहे, करद राज्यों में भी स्वतंत्रता बनाये रखी । कठेहर रोहिलखण्ड की स्थापना से लेकर सल्तनत काल की उथल पुथल, मार काट , दमन चक्र तक लगभग आठ सौ वर्ष के शासन काल के पश्चात् 1857 के ग़दर के समय तक रोहिले राजपूतों ने राष्ट्रहित में बलिदान दिये हैं। क्रूर काल के झंझावालों से संघर्ष करते हुए क्षत्रियों का यह 'रोहिला परिवार' बिखर गया है, इस समाज की पहचान के लिए भी आज स्पष्टीकरण देना पड़ता है। कैसा दुर्भाग्य है? यह क्षत्रिय वर्ग का। जो अपनी पहचान को भी टटोलना पड़ रहा है। परन्तु समय के चक्र में सब कुछ सुरक्षित है। इतिहास के दर्पण में थिरकते चित्र, बोलते हैं, अतीत झाँकता है, सच सोचता है कि उसके होने के प्रमाण धुंधले-धुंधले से क्यों हैं? हे- क्षत्रिय तुम धन्य हो, पहचानो अपने प्रतिबिम्बों को' - "क्षत्रिय एकता का बिगुल फूँक सब धुंधला धुंधला छंटने दो। हो अखंड भारत के राजपुत्र खण्ड खण्ड में न सबको बंटने दो ।।" 21. रोहिलखण्ड से विस्थापित इन रोहिला परिवारों में राजपूत परम्परा के कुछ प्रमुख गोत्र इस प्रकार पाए जाते हैं :- 
रोहिला, रोहित, रोहिल, रावल, द्रोहिया, रल्हन, रूहिलान, रौतेला , रावत यौधेय, योतिक, जोहिया, झोझे, पेशावरी पुण्डीर, पांडला, पंढेर, पुन्ड़ेहार, पुंढीर, पुंडाया चौहान, जैवर, जौडा, चाहल, चावड़ा, खींची, गोगद, गदाइया, सनावर, क्लानियां, चिंगारा, चाहड बालसमंद, चोहेल, चेहलान, बालदा, बछ्स (वत्स), बछेर, चयद, झझोड, चौपट, खुम्ब, जांघरा, जंगारा, झांझड निकुम्भ, कठेहरिया, कठौरा, कठैत, कलुठान, कठपाल, कठेडिया, कठड, काठी, कठ, पालवार राठौर, महेचा, महेचराना, रतनौता, बंसूठ जोली, जोलिए, बांकटे, बाटूदा, थाथी, कपोलिया, खोखर, अखनौरिया ,लोहमढ़े, मसानिया बुन्देला, उमट, ऊमटवाल भारतवंशी, भारती, गनान नाभावंशी,बटेरिया, बटवाल, बरमटिया परमार, जावडा, लखमरा, मूसला, मौसिल, भौंसले, बसूक, जंदडा, पछाड़, पंवारखा, ढेड, मौन तोमर, तंवर, मुदगल, देहलीवाल, किशनलाल, सानयाल, सैन, सनाढय गहलौत, कूपट, पछाड़, थापा, ग्रेवाल, कंकोटक, गोद्देय, पापडा, नथैड़ा, नैपाली, लाठिवाल, पानिशप, पिसोण्ड, चिरडवाल, नवल, चरखवाल, साम्भा, पातलेय, पातलीय, छन्द (चंड), क्षुद्रक,(छिन्ड, इन्छड़, नौछड़क), रज्जडवाल, बोहरा, जसावत, गौर, मलक, मलिक, कोकचे, काक कछवाहा, कुशवाहा, कोकच्छ, ततवाल, बलद, मछेर सिसौदिया, भरोलिया, बरनवाल, बरनपाल, बहारा
खुमाहड, अवन्ट, ऊँटवाल 
सिकरवार, रहकवाल, रायकवार, ममड, गोदे सोलंकी, गिलानिया, भुन, बुन, बघेला, ऊन, (उनयारिया) बडगूजर, सिकरवार, ममड़ा, पुडिया कश्यप, काशब, रावल, रहकवाल यदु, मेव, छिकारा, तैतवाल, भैनिवाल, उन्हड़, भाटटी बनाफरे, जादो, बागड़ी, सिन्धु, कालड़ा, सारन, छुरियापेड, लखमेरिया, चराड, जाखड़, सेरावत, देसवाल, पूडिया प्रमुख रोहिला क्षत्रिय शासक अंगार सैन - गांधार (वैदिक काल) अश्वकरण - ईसा पूर्व 326 (मश्कावती दुर्ग) अजयराव - स्यालकोट (सौकंल दुर्ग) ईसा पूर्व 326 प्रचेता - मलेच्छ संहारक शाशिगुप्त - साइरस के समकालीन सुभाग सैन - मौर्य साम्राज्य के समकालीन राजाराम शाह - 929 वि. रामपुर रोहिलखण्ड बीजराज - रोहिलखण्ड करण चन्द्र - रोहिलखण्ड विग्रह राज - रोहिलखण्ड - गंगापार कर स्रुघ्न जनपद (सुगनापुर) यमुना तक विस्तार दसवीं शताब्दी में सरसावा में किले का निर्माण पश्चिमी सीमा पर, यमुना द्वारा ध्वस्त टीले के रूप में नकुड़ रोड पर देखा जा सकता है। सावन्त सिंह - रोहिलखण्ड जगमाल - रोहिलखण्ड धिंगतराव - रोहिलखण्ड गोंकुल सिंह - रोहिलखण्ड महासहाय - रोहिलखण्ड त्रिलोक चन्द - रोहिलखण्ड रणवीर सिंह - रोहिलखण्ड सुन्दर पाल - रोहिलखण्ड नौरंग देव - रोहिलखण्ड सूरत सिंह - रोहिलखण्ड हंसकरण रहकवाल - पृथ्वीराज के सेनापति मिथुन देव रायकवार - ईसम सिंह पुण्डीर के मित्र थाना भवन शासक सहकरण, विजयराव - उपरोक्त राजा हतरा - हिसार जगत राय - बरेली मुकंदराज - बरेली 1567 ई. बुधपाल - बदायुं महीचंद राठौर - बदायुं बांसदेव - बरेली बरलदेव - बरेली राजसिंह - बरेली परमादित्य - बरेली न्यादरचन्द - बरेली राजा सहारन - थानेश्वर प्रताप राव खींची (चौहान वंश) - गागरोन राणा लक्ष्य सिंह - सीकरी रोहिला मालदेव - गुजरात जबर सिंह - सोनीपत रामदयाल महेचराना - क्लामथ गंगसहाय - महेचराना - क्लामथ 1761 ई. राणा प्रताप सिंह - कौराली (गंगोह) 1095 ई. नानक चन्द - अल्मोड़ा राजा पूरणचन्द - बुंदेलखंड राजा हंस ध्वज - हिसार व राजा हरचंद राजा बसंतपाल - रोहिलखण्ड व्रतुसरदार, सामंत वृतपाल 1193 ई. महान सिंह बडगूजर - बागपत 1184 ई. राजा यशकरण - अंधली गुणाचन्द - जयकरण - चरखी - दादरी राजा मोहनपाल देव - करोली राजारूप सैन - रोपड़ राजा महपाल पंवार - जीन्द राजा परपदेड पुंडीर - लाहौर राजा लखीराव - स्यालकोट राजा जाजा जी तोमर - दिल्ली खड़ग सिंह - रोहिलखण्ड लौदी के समकालीन राजा हरि सिंह - खिज्रखां के दमन का शिकार हुआ - कुमायुं की पहाड़ियों में अज्ञातवास की शरण ली राजा इन्द्रगिरी (रोहिलखण्ड) (इन्द्रसेन) - सहारनपुर में प्राचीन रोहिला किला बनवाया । रोहिला क्षत्रिय वंश भास्कर लेखक आर. आर. राजपूत मुरसेन अलीगढ से प्रस्तुत राजा बुद्ध देव रोहिला - 1787 ई., सिंधिया व जयपुर के कछवाहो के खेड़ा व तुंगा के मैदान में हुए युद्ध का प्रमुख पात्र । (राय कुँवर देवेन्द्र सिंह जी राजभाट, तुंगा (राजस्थान)
रोहिल्ला उपाधि - शूरवीर, अदम्य - साहसी विशेष युद्ध कला में प्रवीण, उच्च कुलीन सेनानायको, और सामन्तों को उनके गुणों के अनुरूप क्षत्रिय वीरों को तदर्थ उपाधि से विभूषित किया जाता था - जैसे - रावत - महारावत, राणा, महाराणा, ठाकुर, नेगी, रावल, रहकवाल, रोहिल्ला, समरलछन्द, लखमीर,(एक लाख का नायक) आदि। इसी आधार पर उनके वंशज भी आजतक राजपूतों के सभी गोत्रों में पाए जाते हैं। "वभूव रोहिल्लद्व्यड्कों वेद शास्त्रार्थ पारग: । द्विज: श्री हरि चन्द्राख्य प्रजापति समो गुरू : ।।2।। ( बाउक का जोधपुर लेख ) - सन 837 ई. चैत्र सुदि पंचमी - हिंदी अर्थ - "वेद शास्त्र में पारंगत रोहिल्लाद्धि उपाधिधारी एक हरिश्चन्द्र नाम का ब्राह्मण था" जो प्रजापति के समान था हुआ ।।6।। ( गुज्जर गौरव मासिक पत्रिका - अंक 10, वर्ष ।।माह जौलाई 1991 पृष्ठ - 13) (राजपुताने का इतिहास पृष्ठ - 147) (इतिहास रोहिला - राजपूत पृष्ठ - 23) (प्राचीन भारत का इतिहास, राजपूत वंश, - कैलाश - प्रकाशन लखनऊ सन 1970 ई. पृष्ठ - 104 -105 - ) रोहिल्लद्व्यड्क रोहिल्लद्धि - अंक वाला या उपाधि वाला । सर्वप्रथम प्रतिहार शासक द्विज हरिश्चन्द्र को रोहिल्लद्धि उपाधि प्राप्त हुई । बाउक,प्रतिहार शासक विप्र हरिश्चन्द्र के पुत्र कवक और श्रीमति पदमनी का पुत्र था वह बड़ा पराक्रमी और नरसिंह वीर था। प्रतिहार एक पद है, किसी विशेष वर्ण का सूचक नही है। विप्र हरिश्चन्द्र प्रतिहार अपने बाहुबल से मांडौर दुर्ग की रक्षा करने वाला था, अदम्य साहस व अन्य किसी विशेष रोहिला शासक के प्रभावनुरूप ही रोहिल्लद्व्यड्क उपाधि को किसी आधार के बिना कोई भी व्यक्ति अपने नाम के साथ सम्बन्ध करने का वैधानिक रूप में अधिकारी नही हो सकता। उपरोक्त से स्पष्ट है कि बहुत प्राचीन काल से ही गुणकर्म के आधार पर क्षत्रिय उपाधि "रोहिल्ला" प्रयुक्त । प्रदत्त करने की वैधानिक व्यवस्था थी। जिसे हिन्दुआसूर्य - महाराजा पृथ्वीराज चौहान ने भी यथावत रखा। पृथ्वीराज चौहान की सेना में एक सौ रोहिल्ला - राजपूत सेना नायक थे । "पृथ्वीराज रासौ" - चहूँप्रान, राठवर, जाति पुण्डीर गुहिल्ला । बडगूजर पामार, कुरभ, जागरा, रोहिल्ला ।। इस कवित्त से स्पष्ट है । कि - प्राचीन - काल में रोहिला- क्षत्रियों का स्थान बहुत ऊँचा था। रोहिला रोहिल्ल आदि शब्द राजपुत्रों अथवा क्षत्रियों के ही द्योतक थे । इस कवित्त के प्रमाणिकता "आइने अकबरी", 'सुरजन चरिता' भी सिद्ध करते हैं । युद्ध में कमानी की तरह (रोह चढ़ाई करके) शत्रु सेना को छिन्न - भिन्न करने वाले को रहकवाल, रावल, रोहिल्ला, महाभट्ट कहा गया है। महाराज पृथ्वीराज चौहान की सेना में पांच गोत्रों के रावल थे - रावल - रोहिला रावल - सिन्धु रावल - घिलौत (गहलौत) रावल - काशव या कश्यप रावल - बलदया बल्द मुग़ल बादशाह अकबर ने भी बहादुरी की रोहिल्ला उपाधि को यथावत बनाए रखा जब अकबर की सेना दूसरे राज्यों को जीत कर आती थी तो अकबर अपनी सेना के सरदारों को,बहादुर जवानों बहादुरी के पदक (ख़िताब,उपाधि) देता था। एक बार जब महाराणा मान सिंह काबुल जीतकर वापिस आए तो अकबर ने उसके बाइस राजपूत सरदारों को यह ख़िताब दी (उपाधि से सम्मानित किया) बाई तेरा हर निरकाला रावत को - रावल जी चौमकिंग सरनाथा को - रावल झंड्कारा कांड्कड को - रोहिल्ला रावत मन्चारा - कांड्कड काम करन, निरकादास रावत को रावराज और रूहेलाल को रोहिला✍️संकलित द्वारा :-समय सिंह पुंडीर,राष्ट्रीय प्रवक्ता,क्षत्रिय अस्तित्व न्याय मोर्चा,आजीवन सदस्य अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा स्थापित१८९७ईस्वी भारत मुख्यालय दिल्ली, 🙏🌹🌷

सिकंदर को धूल चटाने वाली रोहिला क्षत्रियो के काठ गणराज्य की राजकुमारी भारत की प्रथम नारी सेना की संस्थापक वीरांगना कार्विका उर्फ कर्णिका

#ऐतिहासिक_तथ्य_सिकन्दर_की_पराजय

 सिकंदर को हराने वाली कठगणराज्य की राजकुमारी कार्विका के बारे में जानिये सच।
राजकुमारी कार्विका सिंधु नदी के उत्तर में कठगणराज्य की राज्य की राजकुमारी थी । राजकुमारी कार्विका बहुत ही कुशल योद्धा थी। रणनीति और दुश्मनों के युद्ध चक्रव्यूह को तोड़ने में पारंगत थी। राजकुमारी कार्विका ने अपने बचपन की सहेलियों के साथ फ़ौज बनाई थी। इनका बचपन के खेल में भी शत्रुओं से देश को मुक्त करवाना और फिर शत्रुओं को दण्ड प्रदान करना यही सब होते थे। राजकुमारी में वीरता और देशभक्ति बचपन से ही थी। जिस उम्र में लड़कियाँ गुड्डे गुड्डी का शादी रचना इत्यादि खेल खेलते थे उस उम्र में कार्विका राजकुमारी को शत्रु सेना का दमन कर के देश को मुक्त करवाना शिकार करना इत्यादि ऐसे खेल खेलना पसंद थे। राजकुमारी धनुर्विद्या के सारे कलाओं में निपुर्ण थी , तलवारबाजी जब करने उतरती थी दोनों हाथो में तलवार लिये लड़ती थी और एक तलवार कमर पे लटकी हुई रहती थी। अपने गुरु से जीत कर राजकुमारी कार्विका ने सबसे सुरवीर शिष्यों में अपना नामदर्ज करवा लिया था। दोनों हाथो में तलवार लिए जब अभ्यास करने उतरती थी साक्षात् माँ काली का स्वरुप लगती थी। भाला फेकने में अचूक निसाँचि थी , राजकुमारी कार्विका गुरुकुल शिक्षा पूर्ण कर के एक निर्भीक और शूरवीरों के शूरवीर बन कर लौटी अपने राज्य में।

 कुछ साल बीतने के साथ साथ यह ख़बर मिला राजदरबार से सिकंदर लूटपाट करते हुए कठगणराज्य की और बढ़ रहा हैं भयंकर तबाही मचाते हुए सिकंदर की सेना नारियों के साथ दुष्कर्म करते हुए हर राज्य को लूटते हुए आगे बढ़ रही थी, इसी खबर के साथ वह अपनी महिला सेना जिसका नाम राजकुमारी कार्विका ने चंडी सेना रखी थी जो कि ८००० से ८५०० नारियों की सेना थी। कठगणराज्य की यह इतिहास की पहली सेना रही जिसमे महज ८००० से ८५०० विदुषी नारियाँ थी। कठगणराज्य जो की एक छोटी सा राज्य था। इसलिए अत्यधिक सैन्यबल की इस राज्य को कभी आवस्यकता ही नहीं पड़ी थी।

 ३२५(इ.पूर्व) में सिकन्दर के अचानक आक्रमण से राज्य को थोडा बहुत नुक्सान हुआ पर राजकुमारी कार्विका पहली योद्धा थी जिन्होंने सिकंदर से युद्ध किया था। सिकन्दर की सेना लगभग १,५०,००० थी और कठगणराज्य की राजकुमारी कार्विका के साथ आठ हज़ार वीरांगनाओं की सेना थी यह एक ऐतिहासिक लड़ाई थी जिसमे कोई पुरुष नहीं था सेना में सिर्फ विदुषी वीरांगनाएँ थी। राजकुमारी और उनकी सेना अदम्य वीरता का परिचय देते हुए सिकंदर की सेना पर टूट पड़ी, युद्धनीति बनाने में जो कुशल होता हैं युद्ध में जीत उसी की होती हैं रण कौशल का परिचय देते हुए राजकुमारी ने सिकंदर से युद्ध की थी।

सिकंदर ने पहले सोचा "सिर्फ नारी की फ़ौज है मुट्ठीभर सैनिक काफी होंगे” पहले २५००० की सेना का दस्ता भेजा गया उनमे से एक भी ज़िन्दा वापस नहीं आ पाया , और राजकुमारी कार्विका की सेना को मानो स्वयं माँ भवानी का वरदान प्राप्त हुआ हो बिना रुके देखते ही देखते सिकंदर की २५,००० सेना दस्ता को गाजर मूली की तरह काटती चली गयी। राजकुमारी की सेना में ५० से भी कम वीरांगनाएँ घायल हुई थी पर मृत्यु किसी को छु भी नहीं पायी थी। सिकंदर की सेना में शायद ही कोई ज़िन्दा वापस लौट पाया थे।
दूसरी युद्धनीति के अनुसार अब सिकंदर ने ४०,००० का दूसरा दस्ता भेजा उत्तर पूरब पश्चिम तीनों और से घेराबन्दी बना दिया परंतु राजकुमारी सिकंदर जैसा कायर नहीं थी खुद सैन्यसंचालन कर रही थी उनके निर्देशानुसार सेना तीन भागो में बंट कर लड़ाई किया राजकुमारी के हाथों बुरी तरह से पस्त हो गयी सिकंदर की सेना।

तीसरी और अंतिम ८५,०००० दस्ताँ का मोर्चा लिए खुद सिकंदर आया सिकंदर के सेना में मार काट मचा दिया नंगी तलवार लिये राजकुमारी कार्विका ने अपनी सेना के साथ सिकंदर को अपनी सेना लेकर सिंध के पार भागने पर मजबूर कर दिया इतनी भयंकर तवाही से पूरी तरह से डर कर सैन्य के साथ पीछे हटने पर सिकंदर मजबूर होगया। इस महाप्रलयंकारी अंतिम युद्ध में कठगणराज्य के ८,५०० में से २७५० साहसी वीरांगनाओं ने भारत माता को अपना रक्ताभिषेक चढ़ा कर वीरगति को प्राप्त कर लिया जिसमे से नाम कुछ ही मिलते हैं। इतिहास के दस्ताबेजों में गरिण्या, मृदुला, सौरायमिनि, जया यह कुछ नाम मिलते हैं। इस युद्ध में जिन्होंने प्राणों की बलिदानी देकर सिकंदर को सिंध के पार खदेड़ दिया था। सिकंदर की १,५०,००० की सेना में से २५,००० के लगभग सेना शेष बची थी , हार मान कर प्राणों की भीख मांग लिया और कठगणराज्य में दोबारा आक्रमण नहीं करने का लिखित संधी पत्र दिया राजकुमारी कार्विका को ।

संदर्व-:
१) कुछ दस्ताबेज से लिया गया हैं पुराणी लेख नामक दस्ताबेज
२) राय चौधरी- 'पोलिटिकल हिस्ट्री आव एशेंट इंडिया'- पृ. 220)
३) ग्रीस के दस्ताबेज मसेडोनिया का इतिहास ,
Hellenistic Babylon नामक दस्ताबेज में इस युद्ध की जिक्र किया गया हैं।
राजकुमारी कार्विका की समूल इतिहास को नष्ठ कर दिया गया था। इस वीरांगना के इतिहास को बहुत ढूंढने पर केवल दो ही जगह पर दो ही पन्नों में ही खत्म कर दिया गया था। यह पहली योद्धा थी जिन्होंने सिकंदर को परास्त किया था ३२५(ई.पूर्व) में। समय के साथ साथ इन इतिहासों को नष्ठ कर दिया गया था और भारत का इतिहास वामपंथी और इक्कसवीं सदी के नवीनतम इतिहासकार जैसे रोमिला थाप्पर और भी बहुत सारे इतिहासकार ने भारतीय वीरांगनाओं के नाम कोई दस्तावेज़ नहीं लिखा था।
यह भी कह सकते हैं भारतीय नारियों को राजनीति से दूर करने के लिए सनातन धर्म में नारियों को हमेशा घूँघट धारी और अबला दिखाया हैं। इतिहासकारों ने भारत को ऋषिमुनि का एवं सनातन धर्म को पुरुषप्रधान एवं नारी विरोधी संकुचित विचारधारा वाला धर्म साबित करने के लिये इन इतिहासो को मिटा दिया था। इन वामपंथी और खान्ग्रेस्सी इतिहासकारो का बस चलता तो रानी लक्ष्मीबाई का भी इतिहास गायब करवा देते पर ऐसा नहीं कर पाये क्यों की १८५७ की ऐतिहासिक लड़ाई को हर कोई जानता हैं । 
लव जिहाद तब रुकेगा जब इतिहासकार ग़ुलामी और धर्मनिरपेक्षता का चादर फ़ेंक कर असली इतिहास रखेंगे। जकुमारी कार्विका जैसी वीरांगनाओं ने सिर्फ सनातन धर्म में ही जन्म लिए हैं। ऐसी वीरांगनाओं का जन्म केवल सनातन धर्म में ही संभव हैं। जिस सदी में इन वीरांगनाओं ने देश पर राज करना शुरू किया था उस समय शायद ही किसी दूसरे मजहब या रिलिजन में नारियों को इतनी स्वतंत्रता होगी । सनातन धर्म का सर है नारी और धड़ पुरुष हैं। जिस प्रकार सर के बिना धड़ बेकार हैं उसी प्रकार सनातन धर्म नारी के बिना अपूर्ण है।
जितना भी हो पाया इस वीरांगना का खोया हुआ इतिहास आप सबके सामने प्रस्तुत है।
भारत सरकार से अनुरोध है महामान्य प्रधानमंत्री महोदय जी से की सच सामने लाने की अनुमति दें इंडियन कॉउंसिल ऑफ़ हिस्टोरिकल रिसर्च को ।

#वन्देमातरम्
#जय_माँ_भवानी। #राजपूतानापरिवार

ROHILKHAND,KATHIYAWAD(SAURASHTRA) के संस्थापक थे काठी , कठेहरिया निकुंभ वंशी रोहिला क्षत्रिय

*वर्तमान_क्षत्रिय_कठेहरिया_राजपूत_शूरवीरो_क़ी_शौर्यगाथाएँ*

*कठ_काठी_कठोड़े_कुलठान_कठपाल_वर्तमान*
*कठेहरिया_ठाकुर ही काठी क्षत्रिय है*
*राजपूताना रोहिलखंड,*
*क्षत्रिय_राजपूताना_रोहिलखंड* 

काठी दरबार भव्यअतित कि श्रुंखला मे एक प्रसिध्ध नाम,यह एक क्षत्रिय संघ जो विरता का वैभव,शौर्य का प्रतिक और अपने कठोर स्वाभीमानी गुणो से प्रसिध्ध हे।
    इनके बारे मे यह भी कहा जाता हे कि,
"काल भी अगर छोड दे लेकिन काठी नहि छोडता"
    (Time (Death) Forgets But Not Kathi)
 थोडी कुछ शताब्दियो से उन्होने स्थीर रुप से अपना निवासस्थान सौराष्ट्र को बना लिया,और इतना हि नहि युगो से पुराण प्रसिध्ध सौराष्ट्र नाम इन्हि के कारण पलटकर 'काठीयावाड' नाम से मशहुर हुआ एसी इन्होने इस विस्तार कि संस्क्रुती मे अमीट छाप छोडी हे।
कठ गणराज्य वाहिक प्रदेश(हाल के पंजाब) मे प्रसिध्ध था इनकि राजधानी (संगल)सांकल थी,
एक उल्लेख मीलता हे कि इन पंजाब वासी कठो के नाम से अफघानीस्तान के गजनी प्रांत मे ‘काटवाज’ क्षेत्र हे।
 कठ लोगों के शारीरिक सौदंर्य और अलौकिक शौर्य की ग्रीक इतिहास लेखकों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है, ग्रीक लेखकों के अनुसार कठों के यहाँ यह प्रथा प्रचलित थी कि वे केवल स्वस्थ एवं बलिष्ठ संतान को ही जीवित रहने देते थे। ओने सीक्रीटोस लिखता है कि वे सुंदरतम एवं बलिष्ठतम व्यक्ति को ही अपना शासक चुनते थे, ग्रिक इतिहासकारो ने कठो को कठोइ या काठीयन जैसे नामो से निर्देषीत किया हे, पाणिनी के ‘अष्टाध्यायी’ मे कठो का उल्लेख हे, पंतजली के महाभाष्य के मत से कठ वैंशपायन के शिष्य थे।इनकि प्रवर्तित वेदसंहिता कि शाखा ‘काठक’ नाम से प्रसिध्ध थी । काठक कापिष्ठल संहिता जैतारायण, प्रत्धर्न(दिवोदासी) ,भीमसेनी इन राजाओ का नाम मीलते हे जीन्होने राजसूय यज्ञ किया था।
   इन्होने कइ बार पोरस को हराया था।इसा पूर्व ३२६ मे सिकंदर की विशाल सेना हिंदकुश कि पर्वतमाला के इस पार अश्वक और अष्टको के राज्य को हराकर जेलम पार कर पोरस से भीडने आ पहोंची,पोरस का पुत्र मारा गया,पोरस ने संधी कर ली जीसमे सैनीक सहायता के बदले ब्यास नदी तक के आगे जीते जाने वाले प्रदेशो पर पोरस सिंकदर के सहायक के तौर पर शासन करेगा, इसके बाद अधृष्ट(अद्रेसाइ) ने बिना लडे आधीनता स्वीकार कर ली, बाद मे कठ के नगर पर सेना आ खडी हुइ, कठ स्वतंत्रता प्रेमी थे, जो अपने साहस के लिए सबसे अधीक विख्यात थे,उन्होने शकट व्युह रचकर सिंकदर कि सेना पर भीतर तक भीषण हुमला किया और जीससे खुद सिंकदर हताहत हो गया, संधी अनुसार पोरस ने २०,००० सैनीको का दल सिंकदर कि सहायता मे भेजा जीसमे हाथी भी थे जीनसे शकट व्युह तुट सकता था, तब कठो कि पराजय मुमकिन हो पाइ, करीबन १७००० कठ मारे गये और कइ बंदि बनाए गये, वहा पर नारीयो ने जौहर भी किया था एसा उल्लेख भी कइ जगह हुआ हे।
कच्छ के पोलीटकल एजन्ट मेकमर्डो जो काफि प्रतिभावान विद्बान थे वे काठी क्षत्रियो से प्रभावित थे इन्होने काठीओ मे विरता का नैतिक गुण,शक्ति,मुख पर तेजस्वीता और स्त्री सन्मान कि भावना सबधे अधीक पाइ थी जीसकि उनके विवरणो द्वारा हमे जानकारी मीलती हे ।
   सूर्यवंशी राजा व्रुतकेतु ने माळवा मे राज्य स्थापीत किया था,जीनके बाद उनके वंशजो जो की मैत्रक कुल और कठगण(काठी)ओने सौराष्ट्र मे प्रस्थान किया ,काठी वहा से कच्छ और राजस्थान के कुछ क्षेत्र मे गये कच्छ मे उन्होने अंजार,बन्नी,कंथकोट,कोटाय,भद्रेश्वर,पलाडीया आदि विस्तारो और कुछ सिंध और द.राजस्थान मे संस्थान और छोटी बडी जागीर स्थापीत कर दि और मैत्रक राजवंश ने वलभीपुर, तळाजा,वळा पंथक जैसो क्षेत्रो मे वर्चस्व जमाया|वलभी कि अपनी सवंत, मुद्रा और विद्यापीठ थी।मैत्रक विजयसेन ‘भटार्क’ ने वलभी साम्राज्य कि स्थापना कि थी। कुछ समय बाद यह वंश ‘वाळा राजकुल’ से जाना गया, जीसमे कइ समर्थ महापुरुषो ने जन्म लीया यह वाळा कुल भी काठी नाम से हि परापुर्व से जाना जाता था।
काठीओ का नाम पृथ्वीराज और कनोज के युध्ध मे उल्लेखीत हुआ हे, और अणहिलपुर को अपनी मरजी पुर्वक सहायता करते थे ।
और इधर कच्छ मे जाडेजा राजपूतो से अविरत संघर्षो के चलते काठीओ ने कच्छ छोडकर सौराष्ट्र मे आगमन किया ।
गढ अयोध्या निकाश भयो -गादि ठठ्ठा मुलथान
सूर्यदेव स्थापन कर्या-गढ मुलक फेर थान
        -रचनाःबडवाजी(बल्ला राजवंश व्याख्यान माला)
इस पंक्ति मे दो प्रसिध्ध सूर्य मंदिरो के स्थानो का उल्लेख हे, मुलतान(मुलःस्थान,हाल पाकिस्तान) और थान(स्थान यह नाम भी वाळा और काठीओ के सौराष्ट्र मुलस्थान की याद मे हि पडा और जो काठीयावाड मे सुरेन्द्रनगर जीले मे स्थीत हे।)
   -मुलतान का सूर्यमंदिर अब अवशेषो मे हि शेष हे पहेले वो ९ मी सदि तक विद्यमान था, परंतु थान का सूर्य मंदिर अपनी मग ब्र्हामणो कि शील्प शैली मे सज्ज होलबूट और मुगुट पहने भगवान सूर्यनारायण कि मनोहर प्राचिन प्रतिमा के साथ मौजुद हे,वेसे तो यह मंदिर पौराणीक हे किंतु इसका जिर्णोद्वार और किल्लेबंध रचना काठीओ द्वारा हुइ और बाद मे यह मंदिर सूरजदेवल के नाम से प्रसिध्ध हुआ। भारत के आराजक युग मे गुलाम,खिलजी,तुगलक,सैयद,लोदि,सुरी और उसके बाद मुगल इस तरह एक के बाद एक यवन साम्राज्य स्थापीत हुए, जो पुर्वकाल मे अनेक गणराज्यो मे बटा हुआ होकर भी एक था,वह भारत खंडीत हो रहा था ।12 वि शताब्दि के बाद से इस मंदिर पर कइ भीषण हमले होने से यह मंदिर तुटता रहा और फिर से उसका जिर्णोद्वार होता रहा । जीससे यह स्थान आस्था एवं संग्राम की भुमी हे। इनके बाद अंग्रेज और मराठा कि जुल्मी पेशकदमी और धाड से प्रदेश पुरा आंक्रत था तब काठी क्षत्रियो ने अच्छी तरह से युध्ध-रणनीती,संध बनाकर सौराष्ट्र के प्रांतो को जिता और अविरत युध्ध और संघर्ष किया *‘जितस्येवसुधाकाम्ये दैदिप्य सूर्य नभे’* और जीत के साथ नभ मे दिपमान सूर्य के भांती चमकते रहे इसके चलते मराठाओ ने हि इस प्रदेश को काठीयावाड नाम घोषीत किया,यह एक इतिहास कि विरल घटना होगी जीसमे आक्रांताओ द्वारा जन समुदाय से प्रतिकार होने पर प्रदेश का नामाभिधान हो गया।
काठी क्षत्रीयो का प्रत्येक व्यक्ति गण हे और इनकि संघीय विचारधारा रहि हे, काठीयावाड मे उन्होने अन्य क्षत्रीयो को अपने साथ अपनी परंपरा मे जोडा और संघीय शक्ति मजबुत कि,तथा बगसरा दरबार वालेरावाळा ने १६ वी सदि के उतराध मे सहस्त्र भोज यज्ञ कर लग्न और रीवाज संबधी चुस्त प्रथा का निर्माण संघ को और मजबुत करने के लिए किया तथा जनपद युगीन क्षत्रिय परंपरा को जीवंत रखी।
और इनमे समविष्ट अन्य क्षत्रीय इस प्रकार हे,
राव धाधल के पुत्र बुढाजी और बुढाजीके पुत्र कालुसीह थे.वी.सं १४६६ और शा.शके 1328मे जब कालुसींहजी धाधल अचलदास खीचीके साथ युद्ध कर रहे थे तब वासुकी अवतार गोगाजीने कालुसींह को युद्धमे सहायकी थी. कालुसींहने अपना कर्तव्य नीभाते हुवे वासुकीदेवको अपने इस्टदेव माना. कालुसिंहने फीर पांच वार्ष तक अपनी जमीन पर राज कीया. बादमे कालुसीह धाधल शाके 1333 और वी.सं 1471मे अपना पुरा सेन्य और संघ लेकर द्धवारका की यात्रा कि . तब द्धावरका की गादी पे वाढेर शाखाके के राठौर का राज था जो कालुसींहकी पुर्वज राव सिंहाजी के वंशज थे. एक मास तक स्नेहसे द्धारका रहनेके बाद वापस मारवाड लोटने चले. कालुसिहजी मध्य सौराष्ट्रके पंचाल प्रदेशमे शाके 1333 मागसर सुद 9 के पेहले प्रोहर मे कालुसीह और उनका सेन्य थानगढके पास लाखामाची गाव पोहचे. कच्छके जामके साथ युद्धके हेतु काठी राजपुत तब लाखामाचीमे युद्धकी तयारी कर रहे थे.कालुसीहने काठी राजपुतो को जामके साथ चल रहे युद्धमे सहायता की और वासुकीदेव की आज्ञा से कालुसीह काठी राजपुत संघ मे शामील हुए. 

"कच्छ ना जाम ते कारमा आविया लाविया फ़ौज ते लाख लारा । 
एहना बाप नो वैर वालन वटा पत्तावत गोतता खंड पारा ।। 
सबल सौरठ वीसे साथ ने सांभली द्वेष थी वेरिया दाव दाख्यो ।
 ते दी खत्री वट कारने आफल्या अड़ी खम्भ धरा स्तम्भ धांधले धरम राख्यो॥
  ओखा के वेरावळजी वाढेर(राठोर) भी काठी संघ मे शामील हुए थे इनसे गीडा, तीतोसा, तकमडीया, भांभला इन पेटा राठोड कुल कि पेटा शाखा का उदभव हुआ, जालोरगढ के राजा विरमदेव सोनागरा(चौहान) के पुत्र केशरदेव इनसे जळु शाखा का उदभव हुआ, परमारो राजपूतो मे से बसीया,विंछीया,माला,जेबलीया, और हळवद राजभायात मालसिंहजी जाला से खवड शाखा का उदभव हुआ, कंबध युध्ध करने वाला प्रतापी विर नागाजण जेठवा बचपन मे अपने काठी मामा के यहा पले बडे , इनसे वांक और वरु शाखा का उदभव हुआ तथा चावडा राजपूत और कइ क्षत्रियो को अपने साथ जोडकर संघ को सशक्त किया।इस प्रकार संघ कि शक्ति से वे अपना अस्तीत्व कायम रख पाए ।
काठी दरबारों ने युद्ध के लिए अश्व की एक ब्रीड तैयार की थी जिसका नाम काठी ब्रिड हे है। ये अश्व काफी मामलो में बाकी ब्रीड से आगे है।। महाराणा प्रताप का अश्व चेतक भी एक काठी घोडा था।

कइ लेखक विदो ने इन विरबाहुओ के शौर्य का बखान किया हे यहा प्रसिध्ध लेखक स्व.चंद्रकांत बक्षी के शब्दो मेःकाठी ज्ञाती संख्या मे कम फिर भी शूरविर कोम हे, कम संख्या मे होकर भी पुरे प्रदेश को काठीयावाड घोषीत कर सके वह उनकि शुरविरता,कुनेह,और लडायक नीती का उच्चत्म प्रमाणपत्र हे और यह सिध्धी हासिल करने मे कइ काठी विर,संत और सतिओ के बलीदान हे।

सौजन्यः काठी संस्कृतिदीप संस्थान☀

सदर्भः
 -Arrian, Anabasis of Alexander, V.22-24
-Bharat Discovery
 -An Inquiry Into the Ethnography of Afghanistan By H. W. Bellew page17 
-कर्नल टोड कृत राज. का इतिहास & Travels in -Western India
-जे. डबल्यु. वोटसन
-काठी संस्कृति अने इतिहास-डो.श्री प्रद्युमनभाइ खाचर
-काठीओ अने काठीयावाड -डो.श्री प्रद्युमनभाइ खाचर
-महाविरसिंह छिंताबा(भीलवाडा)
-पथीक मेगेजीन -के.का शास्त्री
-द.श्री भोजवाळा चुडा-सोरठ
-काठी अभ्युदय
-macmurdo. Trans. Lit. soc.

*ठाकुर_राणा_प्रताप_सिंह उर्फ दीपक_सिंह_कठेहरिय श्री_राष्ट्रीय_राजपूत_करणी_सेना_सम्भल_उत्तर_प्रदेश*