*कठ_काठी_कठोड़े_कुलठान_कठपाल_वर्तमान*
*कठेहरिया_ठाकुर ही काठी क्षत्रिय है*
*राजपूताना रोहिलखंड,*
*क्षत्रिय_राजपूताना_रोहिलखंड*
काठी दरबार भव्यअतित कि श्रुंखला मे एक प्रसिध्ध नाम,यह एक क्षत्रिय संघ जो विरता का वैभव,शौर्य का प्रतिक और अपने कठोर स्वाभीमानी गुणो से प्रसिध्ध हे।
इनके बारे मे यह भी कहा जाता हे कि,
"काल भी अगर छोड दे लेकिन काठी नहि छोडता"
(Time (Death) Forgets But Not Kathi)
थोडी कुछ शताब्दियो से उन्होने स्थीर रुप से अपना निवासस्थान सौराष्ट्र को बना लिया,और इतना हि नहि युगो से पुराण प्रसिध्ध सौराष्ट्र नाम इन्हि के कारण पलटकर 'काठीयावाड' नाम से मशहुर हुआ एसी इन्होने इस विस्तार कि संस्क्रुती मे अमीट छाप छोडी हे।
कठ गणराज्य वाहिक प्रदेश(हाल के पंजाब) मे प्रसिध्ध था इनकि राजधानी (संगल)सांकल थी,
एक उल्लेख मीलता हे कि इन पंजाब वासी कठो के नाम से अफघानीस्तान के गजनी प्रांत मे ‘काटवाज’ क्षेत्र हे।
कठ लोगों के शारीरिक सौदंर्य और अलौकिक शौर्य की ग्रीक इतिहास लेखकों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है, ग्रीक लेखकों के अनुसार कठों के यहाँ यह प्रथा प्रचलित थी कि वे केवल स्वस्थ एवं बलिष्ठ संतान को ही जीवित रहने देते थे। ओने सीक्रीटोस लिखता है कि वे सुंदरतम एवं बलिष्ठतम व्यक्ति को ही अपना शासक चुनते थे, ग्रिक इतिहासकारो ने कठो को कठोइ या काठीयन जैसे नामो से निर्देषीत किया हे, पाणिनी के ‘अष्टाध्यायी’ मे कठो का उल्लेख हे, पंतजली के महाभाष्य के मत से कठ वैंशपायन के शिष्य थे।इनकि प्रवर्तित वेदसंहिता कि शाखा ‘काठक’ नाम से प्रसिध्ध थी । काठक कापिष्ठल संहिता जैतारायण, प्रत्धर्न(दिवोदासी) ,भीमसेनी इन राजाओ का नाम मीलते हे जीन्होने राजसूय यज्ञ किया था।
इन्होने कइ बार पोरस को हराया था।इसा पूर्व ३२६ मे सिकंदर की विशाल सेना हिंदकुश कि पर्वतमाला के इस पार अश्वक और अष्टको के राज्य को हराकर जेलम पार कर पोरस से भीडने आ पहोंची,पोरस का पुत्र मारा गया,पोरस ने संधी कर ली जीसमे सैनीक सहायता के बदले ब्यास नदी तक के आगे जीते जाने वाले प्रदेशो पर पोरस सिंकदर के सहायक के तौर पर शासन करेगा, इसके बाद अधृष्ट(अद्रेसाइ) ने बिना लडे आधीनता स्वीकार कर ली, बाद मे कठ के नगर पर सेना आ खडी हुइ, कठ स्वतंत्रता प्रेमी थे, जो अपने साहस के लिए सबसे अधीक विख्यात थे,उन्होने शकट व्युह रचकर सिंकदर कि सेना पर भीतर तक भीषण हुमला किया और जीससे खुद सिंकदर हताहत हो गया, संधी अनुसार पोरस ने २०,००० सैनीको का दल सिंकदर कि सहायता मे भेजा जीसमे हाथी भी थे जीनसे शकट व्युह तुट सकता था, तब कठो कि पराजय मुमकिन हो पाइ, करीबन १७००० कठ मारे गये और कइ बंदि बनाए गये, वहा पर नारीयो ने जौहर भी किया था एसा उल्लेख भी कइ जगह हुआ हे।
कच्छ के पोलीटकल एजन्ट मेकमर्डो जो काफि प्रतिभावान विद्बान थे वे काठी क्षत्रियो से प्रभावित थे इन्होने काठीओ मे विरता का नैतिक गुण,शक्ति,मुख पर तेजस्वीता और स्त्री सन्मान कि भावना सबधे अधीक पाइ थी जीसकि उनके विवरणो द्वारा हमे जानकारी मीलती हे ।
सूर्यवंशी राजा व्रुतकेतु ने माळवा मे राज्य स्थापीत किया था,जीनके बाद उनके वंशजो जो की मैत्रक कुल और कठगण(काठी)ओने सौराष्ट्र मे प्रस्थान किया ,काठी वहा से कच्छ और राजस्थान के कुछ क्षेत्र मे गये कच्छ मे उन्होने अंजार,बन्नी,कंथकोट,कोटाय,भद्रेश्वर,पलाडीया आदि विस्तारो और कुछ सिंध और द.राजस्थान मे संस्थान और छोटी बडी जागीर स्थापीत कर दि और मैत्रक राजवंश ने वलभीपुर, तळाजा,वळा पंथक जैसो क्षेत्रो मे वर्चस्व जमाया|वलभी कि अपनी सवंत, मुद्रा और विद्यापीठ थी।मैत्रक विजयसेन ‘भटार्क’ ने वलभी साम्राज्य कि स्थापना कि थी। कुछ समय बाद यह वंश ‘वाळा राजकुल’ से जाना गया, जीसमे कइ समर्थ महापुरुषो ने जन्म लीया यह वाळा कुल भी काठी नाम से हि परापुर्व से जाना जाता था।
काठीओ का नाम पृथ्वीराज और कनोज के युध्ध मे उल्लेखीत हुआ हे, और अणहिलपुर को अपनी मरजी पुर्वक सहायता करते थे ।
और इधर कच्छ मे जाडेजा राजपूतो से अविरत संघर्षो के चलते काठीओ ने कच्छ छोडकर सौराष्ट्र मे आगमन किया ।
गढ अयोध्या निकाश भयो -गादि ठठ्ठा मुलथान
सूर्यदेव स्थापन कर्या-गढ मुलक फेर थान
-रचनाःबडवाजी(बल्ला राजवंश व्याख्यान माला)
इस पंक्ति मे दो प्रसिध्ध सूर्य मंदिरो के स्थानो का उल्लेख हे, मुलतान(मुलःस्थान,हाल पाकिस्तान) और थान(स्थान यह नाम भी वाळा और काठीओ के सौराष्ट्र मुलस्थान की याद मे हि पडा और जो काठीयावाड मे सुरेन्द्रनगर जीले मे स्थीत हे।)
-मुलतान का सूर्यमंदिर अब अवशेषो मे हि शेष हे पहेले वो ९ मी सदि तक विद्यमान था, परंतु थान का सूर्य मंदिर अपनी मग ब्र्हामणो कि शील्प शैली मे सज्ज होलबूट और मुगुट पहने भगवान सूर्यनारायण कि मनोहर प्राचिन प्रतिमा के साथ मौजुद हे,वेसे तो यह मंदिर पौराणीक हे किंतु इसका जिर्णोद्वार और किल्लेबंध रचना काठीओ द्वारा हुइ और बाद मे यह मंदिर सूरजदेवल के नाम से प्रसिध्ध हुआ। भारत के आराजक युग मे गुलाम,खिलजी,तुगलक,सैयद,लोदि,सुरी और उसके बाद मुगल इस तरह एक के बाद एक यवन साम्राज्य स्थापीत हुए, जो पुर्वकाल मे अनेक गणराज्यो मे बटा हुआ होकर भी एक था,वह भारत खंडीत हो रहा था ।12 वि शताब्दि के बाद से इस मंदिर पर कइ भीषण हमले होने से यह मंदिर तुटता रहा और फिर से उसका जिर्णोद्वार होता रहा । जीससे यह स्थान आस्था एवं संग्राम की भुमी हे। इनके बाद अंग्रेज और मराठा कि जुल्मी पेशकदमी और धाड से प्रदेश पुरा आंक्रत था तब काठी क्षत्रियो ने अच्छी तरह से युध्ध-रणनीती,संध बनाकर सौराष्ट्र के प्रांतो को जिता और अविरत युध्ध और संघर्ष किया *‘जितस्येवसुधाकाम्ये दैदिप्य सूर्य नभे’* और जीत के साथ नभ मे दिपमान सूर्य के भांती चमकते रहे इसके चलते मराठाओ ने हि इस प्रदेश को काठीयावाड नाम घोषीत किया,यह एक इतिहास कि विरल घटना होगी जीसमे आक्रांताओ द्वारा जन समुदाय से प्रतिकार होने पर प्रदेश का नामाभिधान हो गया।
काठी क्षत्रीयो का प्रत्येक व्यक्ति गण हे और इनकि संघीय विचारधारा रहि हे, काठीयावाड मे उन्होने अन्य क्षत्रीयो को अपने साथ अपनी परंपरा मे जोडा और संघीय शक्ति मजबुत कि,तथा बगसरा दरबार वालेरावाळा ने १६ वी सदि के उतराध मे सहस्त्र भोज यज्ञ कर लग्न और रीवाज संबधी चुस्त प्रथा का निर्माण संघ को और मजबुत करने के लिए किया तथा जनपद युगीन क्षत्रिय परंपरा को जीवंत रखी।
और इनमे समविष्ट अन्य क्षत्रीय इस प्रकार हे,
राव धाधल के पुत्र बुढाजी और बुढाजीके पुत्र कालुसीह थे.वी.सं १४६६ और शा.शके 1328मे जब कालुसींहजी धाधल अचलदास खीचीके साथ युद्ध कर रहे थे तब वासुकी अवतार गोगाजीने कालुसींह को युद्धमे सहायकी थी. कालुसींहने अपना कर्तव्य नीभाते हुवे वासुकीदेवको अपने इस्टदेव माना. कालुसिंहने फीर पांच वार्ष तक अपनी जमीन पर राज कीया. बादमे कालुसीह धाधल शाके 1333 और वी.सं 1471मे अपना पुरा सेन्य और संघ लेकर द्धवारका की यात्रा कि . तब द्धावरका की गादी पे वाढेर शाखाके के राठौर का राज था जो कालुसींहकी पुर्वज राव सिंहाजी के वंशज थे. एक मास तक स्नेहसे द्धारका रहनेके बाद वापस मारवाड लोटने चले. कालुसिहजी मध्य सौराष्ट्रके पंचाल प्रदेशमे शाके 1333 मागसर सुद 9 के पेहले प्रोहर मे कालुसीह और उनका सेन्य थानगढके पास लाखामाची गाव पोहचे. कच्छके जामके साथ युद्धके हेतु काठी राजपुत तब लाखामाचीमे युद्धकी तयारी कर रहे थे.कालुसीहने काठी राजपुतो को जामके साथ चल रहे युद्धमे सहायता की और वासुकीदेव की आज्ञा से कालुसीह काठी राजपुत संघ मे शामील हुए.
"कच्छ ना जाम ते कारमा आविया लाविया फ़ौज ते लाख लारा ।
एहना बाप नो वैर वालन वटा पत्तावत गोतता खंड पारा ।।
सबल सौरठ वीसे साथ ने सांभली द्वेष थी वेरिया दाव दाख्यो ।
ते दी खत्री वट कारने आफल्या अड़ी खम्भ धरा स्तम्भ धांधले धरम राख्यो॥
ओखा के वेरावळजी वाढेर(राठोर) भी काठी संघ मे शामील हुए थे इनसे गीडा, तीतोसा, तकमडीया, भांभला इन पेटा राठोड कुल कि पेटा शाखा का उदभव हुआ, जालोरगढ के राजा विरमदेव सोनागरा(चौहान) के पुत्र केशरदेव इनसे जळु शाखा का उदभव हुआ, परमारो राजपूतो मे से बसीया,विंछीया,माला,जेबलीया, और हळवद राजभायात मालसिंहजी जाला से खवड शाखा का उदभव हुआ, कंबध युध्ध करने वाला प्रतापी विर नागाजण जेठवा बचपन मे अपने काठी मामा के यहा पले बडे , इनसे वांक और वरु शाखा का उदभव हुआ तथा चावडा राजपूत और कइ क्षत्रियो को अपने साथ जोडकर संघ को सशक्त किया।इस प्रकार संघ कि शक्ति से वे अपना अस्तीत्व कायम रख पाए ।
काठी दरबारों ने युद्ध के लिए अश्व की एक ब्रीड तैयार की थी जिसका नाम काठी ब्रिड हे है। ये अश्व काफी मामलो में बाकी ब्रीड से आगे है।। महाराणा प्रताप का अश्व चेतक भी एक काठी घोडा था।
कइ लेखक विदो ने इन विरबाहुओ के शौर्य का बखान किया हे यहा प्रसिध्ध लेखक स्व.चंद्रकांत बक्षी के शब्दो मेःकाठी ज्ञाती संख्या मे कम फिर भी शूरविर कोम हे, कम संख्या मे होकर भी पुरे प्रदेश को काठीयावाड घोषीत कर सके वह उनकि शुरविरता,कुनेह,और लडायक नीती का उच्चत्म प्रमाणपत्र हे और यह सिध्धी हासिल करने मे कइ काठी विर,संत और सतिओ के बलीदान हे।
सौजन्यः काठी संस्कृतिदीप संस्थान☀
सदर्भः
-Arrian, Anabasis of Alexander, V.22-24
-Bharat Discovery
-An Inquiry Into the Ethnography of Afghanistan By H. W. Bellew page17
-कर्नल टोड कृत राज. का इतिहास & Travels in -Western India
-जे. डबल्यु. वोटसन
-काठी संस्कृति अने इतिहास-डो.श्री प्रद्युमनभाइ खाचर
-काठीओ अने काठीयावाड -डो.श्री प्रद्युमनभाइ खाचर
-महाविरसिंह छिंताबा(भीलवाडा)
-पथीक मेगेजीन -के.का शास्त्री
-द.श्री भोजवाळा चुडा-सोरठ
-काठी अभ्युदय
-macmurdo. Trans. Lit. soc.
*ठाकुर_राणा_प्रताप_सिंह उर्फ दीपक_सिंह_कठेहरिय श्री_राष्ट्रीय_राजपूत_करणी_सेना_सम्भल_उत्तर_प्रदेश*
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